Monday, September 27, 2010

मेरी हवा में रहेगी ख्याल की खुश्बू (शहीद-ऐ-आज़म भगत सिंह : २७.०९.१९०७-२३.०३.१९३१)

आज, उनकी जयंती पर लिखी  (कम से कम लिखी) तो बहुत सारी बातें  जा सकती हैं, पर इन दिनों जिस  एक पुस्तक को पढ़ के कई रातों तक अन्यमन्यस्क सी स्थिति रही उसका एक महत्वपूर्ण भाग आपके साथ बांटने की तीव्र इच्छा हुई.   
बड़ा विरोधाभास सा लगता है, किसी के जन्मदिन के दिन उसकी शहादत की बातें करना, पर भगत सिंह का जीवन भी तो इतिहास के सर्वश्रेष्ठ विपरीत लक्षणों में से एक है.
वह एक सच्चे क्रांतिकारी थे,जब उनको फांसी दी गयी वे केवल २३ साल के थे,.जिस तरह बिना किसी डर के जिए-उसी तरह बिना किसी डर के मरे. अब बहुत से क्रांतिकारी इतिहास की किताबो में सिर्फ एक नाम बनकर रह गये है.मगर फांसी के ७९ साल बाद भी भगत सिंह की याद राष्ट्र में ताज़ी है.
  उनका कहना था कि भारत की आज़ादी की लड़ाई सतही तौर पर आर्थिक सुधारो की लडाई थी आजादी इन सुधारो के लिए एक मौका देती. बिना गरीबी हटाये आज़ाद भारत सिर्फ नाम के लिए आज़ाद होगा. भगत सिंह एक राज हटाकर दूसरे राज में बदलना नहीं चाहते थे. उन्होंने एक बार अपनी माँ को लिखा था :
"माँ,मुझे इस बात में बिलकुल शक नहीं,एक दिन मेरा देश आज़ाद होगा,मगर मुझे डर है कि 'गोरे साहिब' की खाली की हुई कुर्सी में भूरे\काले साहिब साहिब बैठने जा रहे है.अगर ये सिर्फ राज करने वाले का बदलाव हुआ तो आम आदमी की हालत ऐसी ही रहेगी." 
वो अच्छी तरह से जानते थे कि इन पुराने तरीको को तोड़े बिना कोई बदलाव नहीं लाया जा सकता. वे पुराने तरीके ही थे जो आगे बढ़ने के रास्ते में दीवार बनकर खड़े थे. दार्शनिको ने इस दुनिया का मतलब अलग-अलग समझाया है. मगर बात इसे बदलने की थी,ये क्रांति से ही हो सकता था.
भगतसिंह २३ वर्ष की उम्र में ही  में हमारे बीच से चले गये. ऐसे भगतसिंह का मूल्यांकन कैसा होना चाहिए? है तो ग़ालिब का शे'र पर कयासों और अगर-मगर के बीच में बड़ा सामायिक....

हुई मुद्दत के "ग़ालिब" मर गया पर याद आता है.
वो हर एक बात पे कहना के यूँ होता तो क्या.



'शहीद भगत सिंह क्रांति में एक प्रयोग' ( कुलदीप नैयर ) का भाग ८ का एक हिस्सा

२३ मार्च का दिन उन आम दिनों की तरह ही शुरू हुआ,जब सुबह के वक़्त राजनैतिक बन्दियो को उनकी कोठरियो से बाहर निकाला जाता था. आम तौर पर वह सारा दिन बाहर रहते थे और सूरज छुपने के बाद ही वापिस अंदर जाते थे. लेकिन आज,जब वार्डन चरत सिंह शाम को करीब चार बजे सामने आये और उन्हें वापिस अंदर जाने के लिए कहा तो वह सभी हैरान हो गये.
वापिस अपनी कोठरियो में बंद होने के लिए ये बहुत जल्दी था. कभी-कभी तो वार्डन कि झिड़किओं के बावजूद भी सूरज छिपने के काफी समय बाद तक वह बाहर रहते थे. लेकिन इस बार वह न केवल कठोर बल्कि दृढ़ भी था. उसने ये नहीं बताया कि क्यों. उसने सिर्फ ये कहा,"ऊपर से आर्डर है."
बन्दियो को चरत सिंह की आदत पड़ चुकी थी. वह उन्हें अकेला छोड़ देता था और कभी भी ये नहीं जांचता था कि वे क्या पढ़ते हैं. हलांकि चोरी छुपे अंग्रेजों के खिलाफ कुछ किताबें जेल में लाई जाती थी,उन्हें उसने कभी ज़ब्त नहीं किया था. वह जानता था कि बंदी बच्चे नहीं थे. वे सियासत से गहरा ताल्लुक रखते थे. किताबें उन्हें जेल में गड़बड़ी फ़ैलाने के लिए उकसांयेगी नहीं.
उसकी माता पिता जैसी देखभाल उन्हें दिल तक छू गयी थी. वे सभी उसकी इज्ज़त करते थे और उसे 'चरत सिंह जी' कह कर पुकारते थे. उन्होंने अपने से कहा कि अगर वह उनसे अंदर जाने को कह रहा था तो इसकी कोई न कोई वजह ज़रूर होगी. एक-एक करके वह सभी आम दिनों से चार घंटे पहले ही अपनी-अपनी कोठरियो में चले गये.
जिस तरह से वह अपनी सलाखों के पीछे से झांक रहे थे, वे अब भी हैरान थे. तभी उन्होंने देखा कि बरकत नाई एक के बाद एक कोठरियो में जा रहा था. उसने फुसफुसाया कि आज रात भगत सिंह और उसके साथियो को फांसी चढ़ा दिया जायेगा. उन्होंने (बंदी) ,उससे कहा कि क्या वो भगत सिंह का कंघा, पेन, घडी या कुछ भी उनके लिए ला सकता था ताकि वे उसे यादगार के तौर पे अपने पास रख सके.
हमेशा मुस्कुराने वाला बरकत आज उदास था. वह भगत सिंह की कोठरी में गया और एक कंघा व पेन लेके वापिस आया. सभी उस पर कब्जा करना चाहते थे. १७ में से २ ही किस्मत वाले थे,जिन्हें भगत सिंह की वह चीज़े मिली.
वे सभी खामोश हो गये; कोई बात करने के बारे में सोच तक नहीं रहा था. सभी अपनी कोठरियो के बाहर से जाते हुए रास्ते पर देख रहे थे, जैसे कि वह उम्मीद कर रहे थे कि भगत सिंह उस रास्ते से गुज़रेंगे. वे याद कर रहे थे कि एक दिन जब वह (भगत सिंह) जेल में आये तो एक राजनैतिक बंदी ने उनसे पूछा कि क्रांतिकारी अपना बचाव क्यों नहीं करते. भगत सिंह ने जवाब दिया,उन्हें 'शहीद' हो जाना चाहिए,क्योंकि वे एक ऐसे काम की नुमाइंदगी कर रहे है जो कि सिर्फ उनके बलिदान के बाद ही मजबूत होगा, अदालत में बचाव के बाद नहीं. आज शाम वे सभी क्रान्तिकारियो की एक झलक पाने के लिए बेकरार थे. लेकिन वे शाम की उस ख़ामोशी में, अपने कानो में एक आवाज सुनने का इंतज़ार करते रह गये.
फांसी से २ घंटे पहले, भगत सिंह के वकील प्राणनाथ मेहता को उनसे मिलने की इजाज़त दे दी गयी. उनकी दरख़ास्त थी कि वह अपने मुवक्किल की आखरी इच्छा जानना चाहते है और इसे मान लिया गया. भगत सिंह अपनी कोठरी में ऐसे आगे पीछे घूम रहे थे, जैसे की पिंजरे में एक शेर घूम रहा हो. उन्होंने मेहता का एक मुस्कुराहट के साथ स्वागत किया और उनसे पूछा कि क्या वह उनके लिए 'दि रैवोल्यूशनरी लेनिन' नाम की किताब लाये थे. भगत सिंह ने मेहता को इसकी ख़बर भेजी थी क्योंकि अख़बार में छपे इस किताब के पुनरावलोकन ने उनपर गहरा असर डाला था.
जब मेहता ने उन्हें किताब दी वे बहुत खुश हुए और तुरंत पढ़ना शुरू कर दिया जैसे कि उन्हें मालूम था कि उनके पास ज्यादा वक़्त नहीं था.मेहता ने उनको पूछा कि क्या वो देश को कोई सन्देश देना चाहेंगे. अपनी निगाहें किताब से बिना हटाये, भगत सिंह ने कहा-''साम्राज्यवाद खत्म हो और इन्कलाब जिंदाबाद''
मेहता-"आज तुम कैसे हो?"
भगत सिंह-"हमेशा की तरह खुश हूँ."
मेहता-"क्या तुम्हे किसी चीज़ की इच्छा है?"
भगत सिंह-"हाँ! मैं दोबारा से इस देश में पैदा होना चाहता हूँ ताकि इसकी सेवा कर सकूँ."
भगत सिंह ने उनसे कहा कि पंडित नेहरु और बाबू सुभाष चन्द्र बोस ने जो रूचि उनके मुकद्दमे में दिखाई, उसके लिए उन दोनों का धन्यवाद करें. मेहता राजगुरु से भी मिले, उन्होंने कहा," हमें जल्दी ही मिलना चाहिए." सुखदेव ने मेहता को याद दिलाया कि वे जेलर से कैरम बोर्ड वापिस ले लें, जो कि कुछ महीने पहले मेहता ने उन्हें दिया था.
मेहता के जाने के तुरंत बाद अधिकारिओं ने उन्हें बताया कि उन तीनो की फांसी का वक़्त ११ घंटे घटाकर कल सुबह ६ बजे की जगह आज शाम ७ बजे कर दिया गया है. भगत सिंह ने मुश्किल से किताब के कुछ ही पन्ने पढ़े थे.
"क्या आप मुझे एक अध्याय पढ़ने का वक़्त भी नहीं देंगे?" भगत सिंह ने पूछा. बदले में उन्होंने (अधिकारी),उनसे फांसी के तख्ते की तरफ जाने को कहा.
तीनों के हाथ बंधे हुए थे और वे संतरियो के पीछे लम्बे-लम्बे डग भरते हुए सूली की तरफ बढ़ रहे थे.उन्होंने जाना पहचाना क्रांतिकारी गीत गाना शुरू कर दिया:
कभी वो दिन भी आएगा,
कि जब आज़ाद हम होंगे.
ये अपनी ही ज़मीं होगी,
ये अपना आस्मां होगा.
शहीदों की चिताओं पर,
लगेंगे हर बरस मेले.
वतन पर मिटने वालो का,
यही नाम-ओ-निशां होगा.
एक-एक करके तीनों का वज़न किया गया. उन सब का वज़न बढ़ गया था. फिर तीनो नहाये और उन्होंने काले कपड़े पहने, मगर मुंह नहीं ढके.
चरत सिंह ने भगत सिंह के कान में फुसफुसाया वाहे गुरु से प्रार्थना कर ले. वे हंसे और कहा, "मैंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में भगवान को कभी याद नहीं किया, बल्कि भगवान को दु:खों और गरीबों की वजह से कोसा जरूर है. अगर अब मैं उनसे माफ़ी मांगूगा तो वे कहेगें कि, "यह डरपोक है जो माफ़ी चाहता है क्योंकि इसका अंत करीब आ गया है."
भगत सिंह ने ऊँची आवाज़ में एक भाषण जो कि कैदी अपनी कोठरियो से भी सुन सकते थे:
"असली क्रांतिकारी फौजें गाँवो और कारखानों में है,किसान और मज़दूर. लेकिन हमारे नेता उन्हें नहीं संभालते और ना ही संभालने की हिम्मत कर सकते है. एक बार जब सोया हुआ शेर जाग जाता है, तो जो कुछ हमारे नेता चाहते है वह उसे पाने के बाद भी नहीं रुकता है."
"अब मुझे यह बात आसान तरीके से कहने दे. आप चिल्लाते है 'इन्कलाब जिंदाबाद', मैं यह मानता हूँ कि आप इसे दिल से चाहते है. हमारी परिभाषा के अनुसार, जैसे कि एसेम्बली बम्ब काण्ड के दौरान, हमारे वक्तव्य में कहा गया था, क्रान्ति का मतलब है वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को पूरी तरह से उखाड़ फेंकना और इसकी जगह समाजवाद को लाना.....इसी काम के लिए हम सरकारी व्यवस्था से निबटने के लिए लड़ रहे हैं. साथ ही हमें लोगो को यह भी सिखाना है कि सामाजिक कार्यक्रमों के लिए सही माहौल बनाये. संघर्ष से हम उन्हें सबसे बेहतर तरीके से शिक्षित और तैयार कर सकते है.

"पहले अपने निजीपन को ख़त्म करें. निजी सुख चैन के सपनों को छोड़ दें. फिर काम करना शुरू करें. एक-एक इंच करके तुम्हे आगे बढ़ना चाहिए. इसके लिए हिम्मत, लगन और बहुत दृढ़ संकल्प की जरूरत है. कोई भी हार या किसी भी तरह का धोखा आपको हताश नहीं कर सकता. आपको किसी भी दिक्कत या मुश्किल से हिम्मत नहीं हारनी चाहिए. तकलीफों और बलिदान से आप जीत कर सामने आयेंगे और इस तरह की जीतें, क्रान्ति की बेशकीमती दौलत होती है......."

सूली बहुत पुरानी थी, मगर हट्टे -कट्टे जल्लाद नहीं. जिन तीनों आदमियो को फांसी की सज़ा सुनायी गयी थी, वे अलग-अलग लकड़ी के तख्तों पर खड़े थे, जिनके नीचे गहरे गड्डे थे. भगत सिंह बीच में थे. हर एक के गले पर रस्सी का फंदा कस कर बाँध दिया गया. उन्होंने रस्सी को चूमा. उनके हाथ और पैर बंधे हुए थे. जल्लाद ने रस्सी खींच दी और उनके पैरो के नीचे से लकड़ी के तख्ते हटा दिए. यह एक ज़ालिम तरीका था.
उनके शरीर काफ़ी देर तक शूली पर लटकते रहे. फिर उन्हें नीचे उतारा गया और डाक्टर ने उनकी जाँच की.उसने तीनों को मरा हुआ घोषित कर दिया. जेल के एक अफसर पर उनकी हिम्मत का इतना असर हुआ कि उसने उन्हें पहचानने से इनकार कर दिया. उसे उसी वक्त नौकरी से निलंबित कर दिया गया. उसकी जगह ये काम एक जूनियर अफसर ने किया. दो अंग्रेज़ अफसरों ने, जिनमे से एक जेल का सुपरिंटेंडेंट था फांसी का निरीक्षण किया और उनकी मृत्यु को प्रमाणित किया.
अपनी कोठरियो में बंद कैदी शाम के धुंधलके में अपनी कोठरियो के सामने गलियारे में किसी आवाज़ का इंतज़ार कर रहे थे. पिछले दो घंटे से वहां से कोई नहीं गुजरा था. यहाँ तक कि तालो को दुबारा जांचने के लिए वार्डन भी नहीं.
जेल के घड़ियाल ने ६ का घंटा बजाया जब उन्होंने थोड़ी दूरी पर, भारी जूतों की आवाज़ और जाने पहचाने गीत, "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है" की आवाज़ सुनी. उन्होंने एक और गीत गाना शुरू कर दिया, "माएं रंग दे बसंती चोला".  इसके बाद वहाँ 'इन्कलाब जिंदाबाद' और 'हिन्दुस्तान आज़ाद हो' के नारे लगने लगे, सभी कैदी भी जोर-जोर से नारे लगाने लगे.उनकी आवाज़ इतनी जोर से थी कि वह भगत सिंह के भाषण का कुछ हिस्सा नहीं सुन पाए.
अब,सब कुछ शांत हो चुका था. फांसी के बहुत देर बाद, चरत सिंह आया और फूट-फूट कर रोने लगा. उसने अपनी ३० साल की नौकरी में बहुत सी फांसियां देखी थी लेकिन किसी को भी हँसते-मुस्कुराते सूली पर चढ़ते नहीं देखा था, जैसा की उन तीनों ने किया था. मगर कैदियों को इस बात का अंदाजा हो गया कि उनकी बहादुरी-गाथा ने अंग्रेज़ी हकूमत का समाधि-लेख दिया था.

"उसे ये फ़िक्र है हरदम नया तर्ज-ए-जफा क्या है.
हमें ये शौंक है देखे सितम की इन्तहां क्या है.
मेरी हवा में रहेगी ख्याल की खुश्बू,
ये मुश्त-ए-खाक है फानी,  रहे न रहे."

Saturday, September 18, 2010

हम बोलें अहा हो हो तुम बोलो ओ हो ओ हो

दास्तान-ए-हज़ार रंग

डाकिये की ओर से : 
{इस स्क्रिप्ट का बहुत छोटा अंश 
होली के अवसर पर  
सोचालय पर गंगा-जामुनी सभ्यता शीर्षक नाम से लगाया था..... लेकिन लगा कि तबियत से महफ़िल जमानी हो तो बैरंग से अच्छा प्लेटफार्म कौन है !
 
इसे बोलकर पढ़िए, एक नशे से कम नहीं है ये, यकीन जानिये... कम्पोजिट कल्चर का मतलब जान जायेंगे आप.}
*****




``जिस तरफ भी चल पड़े हम आबला पाया निशौक
खार से गुल और गुल से गुलिस्तां बनता गया``

सफर तो दिलचस्प उसी वक्त होता है जब कोई हमसफर भी हो तो आईये हम और आप सफर पर निकलें जो दिलचस्प भी हो और सबक आमोज भी।

इस सफर में एक जादू नगरी भी मिलेगी जहां मन्दिर भी है और मिस्जदें भी लेकिन दोनों लड़ते झगड़ते नहीं। जहां मुल्ला भी है और पण्डित भी लेकिन एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले हुए। यहां हसीनाओं की टोलियां भी मिलेंगी और आशिकों की जमघट भी। शायर भी मिलेगें और गवैये भी। नाचने वाले भी मिलेंगे और नचाने वाले भी। 

सफर है शर्त मुसाफिर नवाज हूं तेरे
हजार हा शजरे सायादार राह मिल गये

अंगरेजी कल्चर को हमारे यहां के हमारे बुजुर्ग अपने कल्चर के लिए डिबेलेटेटिंग समझते थे, नुकसानदेह समझते थे। उनका अपना कल्चर था। वो कहते थे वो बहुत अच्छा। जिसमें कि भारतीयता थी यानी कि वो ईरान-तेहरान का कलचर नहीं था, अवधी कलचर था, जिसमें हिन्दू अशआर बहुत ज्यादा थे। जिसमें कि जैसे हमारे यहां गीत बड़ा खास हुआ करता था सोहर एक गाया जाता है जबकि औरत जबकि एक कन्साइनमेंट में होती है, जच्चाखाने में। जब बच्चा पैदा होता है। तब सोहर क्या था ? अल्ला मियां हमरे भैया का दियो नन्दलाल। ऐ मेरे अल्लाह! मेरे भाई को भगवान कृष्ण जैसा बेटा दे। अब ये मुसलमान घराने का गाना है। 

-आनन्द भवजे मील बैंठी... आरे लगाये मनावै -

हजरत बीबी कह रही हैं कि अली साहब नहीं आये हैं। सुगरा तोते से कह रही हैं और अगर वो कहीं न मिले, ढूंढने जाओ कहीं न मिलें तो वृन्दावन चले जाना।

है सबमें मची होली अब तुम भी ये चर्चा लो।
रखवाओ अबीर ए जां और मय को भी मंगवा लो।
हम हाथ में लोटा लें तुम हाथ में लोटिया लो।
हम तुमको भिगों डालें तुम हमको भिंगो डालो।
होली में यही धूमें लगती हैं बहुत फलियां।
है तर्ज जो होली की उस तर्ज हंसो बोलो।
जो छेड़ है इस रूत की अब तुम भी वही छेड़ो।
हम डालें गुलाल ऐ जां तुम रंग इधर छिड़को
हम बोलें अहा हो हो तुम बोलो ओ हो ओ हो

मौलाना हसरत मोहानी वो हैं शायर उर्दू के गजल गो शोहवा में जिनके अहमियत बहुत ज्यादा है यानी इकबाल के बाद जिन लोगों ने गजलें वगैरह लिखी हैं, गजलें लिखीं हैं शायरी की है उनमें बहुत अहम नाम है मौलाना हसरत मोहानी का। एक नया रंग, गलल में दिया है मौलाना ने। तो एक शायर की हैसियत से उनका रूतबा बहुत बदन है। मजहबी आदमी थे नवाज रोजे के पाबन्द, कादरीया सिलसिले के मुरीद लेकिन ये ईमान था उनका कि किसी के मजहब को न बुरा कहना न ये समझना कि वो बुरा है। अपना मजहब अपने साथ दूसरा मजहब उनके साथ। सिर्फ यही नहीं बल्कि जितने और रिचुअलस् थे मसलन ये कि हज करने को हर साल जाया करते थे। ये खुसुसियत ये थी कि मौलाना में ये कि वो कृष्ण जी को नबी समझते थे और बड़े मौतकीत थे और अपना हज कहते थे मेरे हज मुकम्मल नहीं होता जब तक कि मैं वापस आ के मथुरा और वृन्दावन में सलाम न करूं। तो वहां से आ के पहले पहुंचते थे मथुरा फिर वृन्दावन वहां सलाम करते थे और फिर बेइन्तहा कतरात और रूबाइयां कृष्ण जी के बारे में उनके मौजूद हैं। 

गोकुल ढ़ूंढ़यो, वृन्दावन ढ़ूंढ़यो... कन्हाई मन तोशे प्रीत लगाई। 

ये पूरी एक बिलीफ ये थी कि हर मजहब एक कल्चर एक्जूट करता है। चाहे वो आपका मजहब हो और चाहे वो मेरा। और उस कल्चर से हम सब फैज़ियाब होते हैं। चाहे वो आप हिन्दू का कल्चर हो चाहे मेरे मुसलमान का कल्चर हो। आखिर में दोनों में जाके एक मिलन होता है जिसको कि हम एक कम्पोजिट कल्चर कहते हैं। 

एक ही जमाने में दो बहुत दिलचस्प शिख़्सयतें दक़न में नुमाया होती हैं । एक तो गोलकुण्डे का ये बादशाह कुल-ए-कुतुबशाह और एक बीजापुर का बादशाह इब्राहिम आदिल शाह। जो जगत्गुरू कहलाता है और नवरस उसकी इक किताब है। ये नवरस जो है ये मौसिकी की, संगीत की बहुत बुनियादी किताब उसने ये डाली है। उसमें सारे राग-रागिनीयों वगैरह-वगैरह हैं और बहुत तफसील से सारा जिक्र है और इसलिये वो जगतगुरू कहलाये। 

किसी को ये नहीं मालूम है कि इब्राहिम आदिल शाह जो कि राजा है बीजापुर का उसने एक किताब लिखी किताब-ए-नवरस उसका बिवाचा वो शुरू होती है सरस्वती वन्दना से। 

अब लोग ये भूल जाते हैं कि कल्चर और मजहब दो अलग चीजें हैं लेकिन कल्चर मजहब से पैदा होता है। मजहब का कल्चर पर असर होता है। कलचर का मजहब पे असर होता है। 

तो ये इब्राहिम आदिल शाह ने जब सरस्वती वन्दना से अपनी किताब किताब-ए-नवरस की इबतदा की तो वो हिन्दू नहीं हो गया था वो सिर्फ ये कह रहा था कि ये कल्चर मुझे बड़ा अच्छा लगता है। वो कल्चरल डायमेंशन की तरफ जा रहा था। नमाज पांच वक्त की पढ़ता था। 

इसी तरह से मैंने आपको बताया कि मैं भीमसेन जोशी से मिलने गया पुणे। तस्वीर लगी हुई है अब्दुल करीम खां साहब की। गंगू बाई हंगल से मिलने गया तस्वीर लगी हूई है अब्दुल करीम खां साहब की। मलिक अर्जुन मंसूर वहां अल्ला दिया खां साहब, मांझे खां साहब। तो ये जो एक कम्पोजिट एलीमेंट था हमारी म्यूजिक में वो  उससे मुझे बड़ा-बड़ा असर उसका पड़ा कि इसमें कोई हिन्दू-मुस्लिम नहीं था। 

गालिब अपनी पेंशन लेने के लिये कलकत्ते जा रहे थे। कहीं घोड़े पे गये, नाव पे गये ,पैदल गये, पैलिनक्वीन पे गये, डोली में गये, फीनस में गये तो बार्ज पे गंगा में जा रहे थे बनारस बहुत अच्छा लगा सबसे बड़ी नज्म उसकी जो है चराग-ए-दैर मन्दिर का दीया फारसी में वो बनारस के बारे में हैं -

``इबादत खाना-ए- नाखूिशयांस्त हमाना काबैह हिन्दूस्तानस्त`` 

यहां के लोग शंख से खूबसूरत आवाज पैदा करते हैं। गंगा उस खूबसूरत औरत की तरह है जो कि गंगा के आईने में अपनी सुबह अपनी शक्ल सुबह-शाम-रात देखती है ये सचमुच हिन्दुस्तान का काबा है और ये सिर्फ गालिब ने नहीं इकबाल ने-

`है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज़
अहले नज़र समझते हैं उसको इमाम-ए- हिन्द``

`लबरेज़ है शराब-ए-हकीकत से जाम-ए- हिन्द
सब फलसफी है खिता-ए-मगरिब के राम-ए-हिन्द
ये हिन्दीयों के फिकरे फलक रस का है असर
रफ्त में आसमां से भी उंचा हे बाम-ए-हिन्द
इस देस में हुए हैं हजारों मलक सरिस्त
मशहूर जिनके दम से है दुनिया मे नाम-ए-हिन्द
है राम के वज़ूद पे हिन्दोस्तां को नाज़
अहल-ए-नज़र समझते हैं उसको इमाम-ए-हिन्द

 मसलन शेख अली हज़ीम ईरान से आये। बनारस में आके उन्होंने अपना पड़ाव डाल दिया वहीं रह गये और ऐसे ऐसे शेर कहे बनारस के ऊपर कि मैं बनारस छोड़ के जा नहीं सकता। यहां का हर आदमी मुझे राम और लक्ष्मण का बेटा दिखाई देता है। पांचो वक्त की नमाज़ पढ़ते थे, रोज़ा रखते थे लेकिन इन चीजें को ...

मीर अनीस ने मर्सिया लिखे वाकया-ए-कर्बला पे। चुन्नी लाल दिलगीर मुसलमान नहीं थे। सरवांटी सेंटर खुल रहा है यहां पर। सरवांटी एक बहुत बड़ा राइटर है स्पेन का। जिसने कि डॉनकिओटे लिखा। अब डॉनकिओटे का सरवांटीज का जो यहां पे उसी से मुतासिर होके 19 सेंचुरी में जो किताब लिखी गई फसाना-ए-आज़ाद उसके आर्थर का नाम किसी को मालूम हो तो वो था पण्डित रतन नाथ शरशार। 20वीं सदी के बेहतरीन शायर। रघुपति सहाय, फिराक गोरखपुरी। तो लोग समझते हैं उर्दू मुसलमानों की ज़बान है। ऐसा है नहीं। बेपनाह हिन्दू शायरों का कॉन्ट्रीबीयूशन है।

कहती थी बानो इलाही हो मेरे वारिस की खैर,
क्यों गिरी जाती है मेरे सर से चादर बार-बार

ये गजल का शेर यानी तगज्ज़ुल जो इनट्रोड्यूज़ किया गया वाक्या-ए-कर्बला में जिसको कि रिवायत के कहती है कि मीर अनीस ये शेर पढ़ते थे और सर धुनते थे और इसकी अहमियत और कुछ नहीं है ये सिर्फ एक ऐसे अजीमुश्शान शायर का शेर है जिसका नाम था चुन्नु लाल दिलगीर। मीर अनीस से मीर ख़लीक के जमाने के और ऐसे बहुत से शायर हुए।

``क्या सिर्फ मुसलमान के प्यार हैं हुसैन
चर्ख-ए-नव-ए-बशर के तारे हैं हुसैन
इंसान को बेदार तो हो लेने दो
हर कौम पुकारेगी, हमारे हैं हुसैन``

-यूं फातिमा करती थी बयां हाय हुस्ना
 मज़नुब हुसैना..... मजनूब हुसैना-


गंगा-जमुनी तहजीब जो हम आजकल बात करते हैं कि साहब ये ज़बान है। जब आज़ाद पाकिस्तान, ईरान, अमेरिका, ओस्लो किसी सेमिनार में खड़े होते थे और मेरे दोस्त-शायर इनकार नहीं करेंगे इस हकीकत से कि आहादी स्कोट करते थे अराबी में पुराने कीम की आयतें पढ़ते थे ज़बानी, संस्कृत के लोक पढ़ते थे तो लगता था कि हां ये उस तहजीब का नुमाइन्दा है जिसे गंगा-जमुनी तहजीब कहते हैं। 

बहुत सी ऐसी जगहें हैं जहां कॉमन वंरिशप है। साउथ में सबसे बड़ा टेंपल जो हैं तीन हैं-तिरूपति, गुरूवायु और सबरीमाला। सबरीमाला पंबा नदी के ऊपर जाइये तो भगवान विश्णु और शिव की एक देन है-लॉर्ड अयप्पा। वहां पे वो मन्दिर है, वहां बेपनाह लोग जाते हैं... बड़ा खूबसूरत, मैं गया हूं लेकिन वहां दर्शन करने से पहले वावर स्वामी एक मुसलमान पीर है वहां जाके पहले एक पीर से एक ताबीज़ लेते हैं लोग फिर जाते हैं वहां। 

अब जो ये रायट्स जब हुए गुज़रात में तो इसमें फय्याज खां की कब्र इन लोगों ने जा के खोद दी। अब मैंने कहा इन कमबख्तों को ये नहीं मालूम कि राग परज में मनमोहन ब्रज के रसिया जो कि भगवान कृश्ण के बारे में है फय्याज खां से ज्यादा खूबसूरत किसी ने नहीं गाया। अहमदाबाद में एक कब्र थी-पुलिस चौकी के बिल्कुल सामने वो थी वली दक़नी की। अपना आतंकी आये और उन्होनें उनको डिस्ट्रॉय कर दिया क्योंकि साहब एक मुसलमान की कब्र थी, इन बेवकूफों को ये नहीं मालूम था कि ये वो शायर है जो कि जो इस तरह सूरत के उपर इससे अच्छा किसी ने लिखा नहीं, अहमदाबाद के बारे में उससे खूबसूरत नज्में किसी ने लिखी ही नहीं और शायर कहता है- कहता है कि -

``कूचा-ए-यार ऐन काशी है``, मेरे यार का कूचा जो है वो काशी जैसी पवित्र नगरी जैसा है।

``कूचा-ए-यार ऐन काशी है,
जोगिया दिल, वहां का बासी है``
  
*****

Monday, September 13, 2010

एक ‘अपराजेय’ गुमनाम लेखक - विलियम अर्नस्ट हेनली!!

240px-William_Ernest_Henley_young उस गुमनाम लेखक की उम्र बारह साल के आस पास रही होगी जब तपेदिक ने उसकी हड्डियों में नींव बनानी शुरु कर दी थी। कुछेक सालों बाद ही जब तपेदिक ने उसके शरीर में धीरे धीरे बढना शुरु किया तब उसे ज़िंदा रखने के लिये उसका बांया पैर उसके घुटने से अलग करना पडा।

उसके बाद भी तकरीबन आठ सालों तक अस्पताल उसका एक दूसरा घर ही बना रहा जिस वजह से वह कभी ठीक से पढाई से भी जुड नहीं पाया। फिर एक दिन वह भी आया जब उसके दूसरे पैर को काटने की नौबत भी आयी। दोनो पैरों के काटने के बाद और तपेदिक के तीन साल तक चले कुछ इलाजों के बाद उस गुमनाम लेखक विलियम अर्नस्ट हेनली ने अपने अगले तीस साल कुछ आराम से व्यतीत किये। उन्ही दिनों, जब एक अस्पताल में उसकी ज़िंदगी पर नश्तर चलाये जा रहे थे,  उसी अस्पताल के बिस्तर पर उसने अपनी ज़िंदगी की सबसे बेहतरीन कविता लिखी जिसका नाम था – ’इनविक्टस

(’इनविक्टस’ एक लैटिन शब्द है जिसका अंग्रेजी में अर्थ है ’इनविन्सिबल’ और  हिंदी में इसके मानी हैं -’अपराजेय’ )

हेनली की मृत्यु (५३ साल की उम्र में, वर्ष १९०३ में,  हेनली ने चुपचाप अपनी गुमनाम ज़िंदगी को हमेशा के लिये  अलविदा कह दिया ) के तकरीबन सौ साल बाद ओखलामा सिटी में एक सरकारी इमारत के सामने एक बम विस्फ़ोट हुआ जिसमें लगभग २०० लोगों की जानें गयी और उस समय तक अमेरिका के इतिहास में वो आतंकवाद की सबसे बडी घटना थी। एक गुमनाम आतंकवादी पकडा गया जिसपर उन २०० जानों के लिये मुकदमा चलाया गया। उस आतंकवादी टिमोथी मेक्वे ने द ऑबजर्वर को भेजे गये एक पत्र में कहा था कि वो सिर्फ़ इस बर्बर सरकार को किये जा रहे गलत कामों के खिलाफ़ चेताना चाहता था।

सुनवाई का दिन आया। टिमोथी ने अपने ऊपर लगे सारे आरोपों को बिना किसी विरोध के स्वीकार कर लिया और आगे कोई भी अपील करने से मना कर दिया। कोर्ट ने ११ जून,२००१ को उसकी मृत्यु का समय निर्धारित कर दिया। अपनी सुनवाई के उन दिनों में टिमोथी कहता हुआ पाया जाता था कि अगर उसे नर्क की प्राप्ति हुयी तो उसके साथ वहाँ वो ढेर सारे पायलेट्स भी होंगे जिन्हे युद्ध जीतने के लिये सैंकडो निर्दोषों की हत्या करनी पडती है।

उसको मृत्यु का इंजेक्शन देने के पहले जब उसकी अंतिम इच्छा पूछी गयी, तब उसने उस गुमनाम लेखक हेनली की इकलौती बेहतरीन कविता ’अपराजेय’  को अपना आखिरी कथन बनाया।

… और इस तरह एक गुमनाम लेखक की एक गुमनाम कविता एक बदनाम व्यक्ति ने इस दुनिया को सुनायी।

 

Invictus!!

Out of the night that covers me,
Black as the pit from pole to pole,
I thank whatever gods may be
For my unconquerable soul.

In the fell clutch of circumstance
I have not winced nor cried aloud.
Under the bludgeoning of chance
My head is bloody, but unbowed.

Beyond this place of wrath and tears
Looms but the Horror of the shade,
And yet the menace of the years
Finds and shall find me unafraid.

It matters not how strait the gate,
How charged with punishments the scroll,
I am the master of my fate:
I am the captain of my soul.

 

 

समाधि सी काली उस रात्रि के पार
जो मुझे एक 
एक क्षितिज से दूसरे क्षितिज तक
ढके रखती है,
मैं सारे ईश्वरों को
अपनी अविजित आत्मा के
लिये धन्यवाद देता हूँ।
 

परिस्थितियों की कसी मुट्ठी में भी
न मैं डरा और न मैंने चीत्कार किया
भाग्य की लाठियों के तले
मेरा ये सर लहुलुहान हुआ पर नहीं झुका।

इन दु:खों और आँसुओ के परे
जहाँ अंधकार का डरावनापन खिलता है
वर्षों की भयानकता भी
मुझे निडर पायेगी और पाती है।

कोई बात नहीं कि वो द्वार कितना संकरा होगा
मुझपर कितने आरोप लगाये गये होंगे,
मैं ही अपने भाग्य का मालिक हूँ
मैं ही अपनी आत्मा का सेनापति हूँ…।

References:

1 – विलियम अर्नस्ट हेनली विकीपीडिया से
2 – टिमोथी मेक्वे विकीपीडिया से
3 – इनविक्ट्स कविता की व्याख्या

*पहली बार किसी अंग्रेजी कविता का हिंदी अनुवाद करने की कोशिश की है। मेरी त्रुटियों के लिये पहले से ही क्षमा और मेरी त्रुटियां बताने वाले का बहुत बहुत आभार!!

Wednesday, September 8, 2010

उजाले उनकी यादों के - 3

मौलाना हसरत मुआनी
{Part-3 & Last}


मौलाना.... देखिए क्या-क्या कीन्स थे मौलाना में, मौलाना subtenant के बड़े कायल थे। सियासत में वो conservative नहीं थे- कि भई कांग्रेस में हैं तो कांग्रेस में रहे मुस्लिम लीग में हैं तो मुस्लिम लीग में रहें। जब कम्युनिस्ट पार्टी की पहली कोंफ्रेंस यानि  formation हुआ कम्यूनिस्ट पार्टी का तो मौलाना वो थे... चेयरमैन reception कमेटी के president थे कम्यूनिस्ट पार्टी की formation वाली conference में मौलाना- कांग्रेस में मौलाना रहे, मुस्लिम लीग में मौलाना रहे। कम्यूनिस्ट पार्टी में मौलाना रहे, सौबियत यूनियन के बहुत मुरीद रहे, सौबियट यूनियन पर बेइन्तहा अशार हैं सौवियत सौवियत सौवियत करते रहते थे। एक दफा उनको लखनऊ में FSU एक Friends of the Saubiyat Union अटैक हुआ हिटलर का सौबियट यूनियन पर तो active हो गई organization एक मीटींग एक conference की जिसमे जवाहर लाल, सरोजिनी नायडू भी आईं। मौलाना भी पहुंचे, उस जमाने में कम्यूनिस्ट पार्टी की लाईन हो गई थी कि हम सौबियट यूनियन पर अटैक हुआ इसलिए ये जंग जो है रूस की जंग हमारी जंग हो गई, हमको उस जंग को support करना चाहिए। पहले तो जंग के खिलाफ थे, तो ये कहते थे कि ये peoples war है तो peoples war को हमको support करना चाहिए। मौलाना के ये बात गले से उतरती नहीं थी कि मैं अंग्रेज के खिलाफ जंग कैसे खत्म कर सकता हूं, छोड़ सकता हूं, अंग्रेज कि खिलाफ लड़ाई लड़नी जरूरी है। कम्यूनिस्ट कहते थे कि अभी नहीं अभी हम रूस के ताहीत कर लें। तो खैर जवाहर लाल ने तकरीर की। सरोजिनी नायडू सदारत कर रहीं थी, उन्होंने तकरीर कि फिर मौलाना को दावत दी गई कि आप तशरीफ़ लाएं। मौलाना खड़े हुए, कहने लगे कि मझसे कहा जाता है कि ये peoples war है peoples war है अरे कहां, अरे साहब, एक भूत पीपल पर बैठा है, एक सर पर बैठा है पीपल के भूत को भगाऊं की सर के भूत को भगाऊं पहले। लफ़्ज़ों से बहुत खेलते थे, जब Crishp Mission आया यहां पर हिन्दुस्तानी आज़ादी के सिलसिले में बड़े सारे मिशन आते रहे न तो यह जो क्रिश्प मिशन था इसके नाम से एक मिशन शुरू हुआ. क्रिश्प मिशन, मौलाना बहुत हंसे, तकरीर करने हम लोगों ने बुलाया कि तक़रीर कीजिए, तक़रीर करने में बोले, I want show good leather and  good soal not crisp, reject, जब सन 1942 में गांधीजी ने Quit India mission शुरू किया तो कहने लगे कि मैंने कहा मौलाना अब तो आप खुश हैं कहने हां अब तो मैंने telegram आज गांधी जी का दे दिया है। क्या मौलाना, क्या गांधी को टेलीग्राम दे दिया है। कहने लगे कि मैंने लिख दिया है कि Congratulations your non-vilance and my vilance मीत.  दोनों में सुलह हो गई। तो मौलाना के पास जब पहुंचे साब तो उन्होंने हमारी दरखवास्त कबूल की- मौलाना के कोई एक दो शेयर तुम लोगों को सुना दें हम अपने एक तो हमने बताया- खैरत का नाम जुनू पड़ गया, जुनू का खैरत जो चाहे कहो हुस्ने करिश्ता साज़ कहे,  ऐ कै नजाम के हिन्द तुझको है दिल से आरज़ू, हिम्मते सरबलन्द है यास का इन्तजात कर मायूस मत होना। इसक खत्म कर दो- हिम्मते सरबलन्द है यास का इन्तजात़ कर- देखिए ये शेयर बड़ा दिलचस्प कहा है इन्होने- हक़ से बाउजरे मसलेहत, वक्त पे जो करे ग़ुरेज़ उसको न पेशवा समझ, उसपे न  ऐतमात कर- यानि ये मसल है कि वक्त में ऐसा है कि मुझे ऐसा करना चाहिए था, इसलिए मैं वहां जेल नही जा सका। जो वक्त पर इस किस्म के मसलेहत कि भई अब मसलेहत अब ऐसी नहीं है। इसलिए छोड़ दो इस तहरीक़ को, ब हक़ से उजरे मसलेहत, वक्त पर जो करे गु़रेज उसको न पेशवा समझ, उसपे न एतमात कर। इसी सलाबत तो character की, मौलाना की आजादी जो थी मौलाना की, सर न झुकाने की जो बात थी- ये बहुत ही लोगों को जाहिर है कि बहुत से लोगों को embrace भी करते थे लोगों को, लेकिन यही चीज़ थी जो मौलाना को इनको हमारे फैज़ अहमद फैज़ ने खराज-ए-अकिदद किया है। 

जैसे हमने बताया था कि मग़दूद मुइनुद्दीन के लिए उन्होंने दो गज़लें लिखी थीं वैसे ही इनके मौलाना के लिए भी, इन्हीं के बहर में, खैर फैज़ ने भी इनके पेश किया है इनके Tribute में, मौलाना के मिजाज में जो सलाबत्त थी जो लोहे की तरह की सख़्ती थी कि हठ नहीं सकते थे अपने लाईन से कभी उसने लोगों मुत्तासिर किया और फिर.... 


एक दिलचस्प वाकया और सुनाएं वहां हैदराबाद में एक Conference हुयी कि तरक्की पसन्द मुसन्नफीन की वहां हमारे दोस्त सिब्तेहसन ने और दूसरे लोगों ने एक resolution  पेश किया कि साहब ये फोहश अफसीन चीजें लिखते हैं और तरक्की पसन्द कहते हैं कि तरक्की पसन्द नहीं होते वो हम उसके तनकीत करते और और उसके मुखालिफत करते हैं ये नहीं होना चाहिए अदब में। उसकी मुखालिफ़त किसने की ? हमारे मौलाना ने, कहने लगे नाजु़क किस्म की चीजों पर बहुत रूहानी किस्म की चीजें इस किस्म की चीजें, को उन्होनें argument दिया कि ये बहुत जरूरी है अगर आप इस किस्म की चीजें निकाल देंगे तो शेयर ही नहीं रह जाएगा लेकिन क्या फायदा कहने से तो थोड़ी बहुत तो opportunity  फराहत होनी चाहिए लेकिन फोहश नहीं होता वो... बल्कि दिल को छू लेने वाला होता है। कानपुर ही वो मुकाम है जहां हम गिरफ्तार हुए उसकी वजह ये हुयी कि जवाहर लाल नेहरू गलिबन गिरफ्तार हुए थे कोई मौका था। 

हां मौलाना के कुछ अशार सुनाए थे न, और उनकी खिदमत में नज़रे पेश किया है, आज के शायर थे हमारे जमाने के जो बड़े शायर जो था फैज़ अहमद फैज़ उन्होंने मौलना की नज़रे अकीदत पेश किया है गज़ल में जो मौलाना की ही गज़ल पर गज़ल कही है उन्होंने। वो दो चार शेयर पढ़के सुनाता हूं। कि किस तरह से लोगों को मौलना ने मुत्तासिर किया था। फैज़ भी उनसे मुत्तासिर हुए हैं।
"मर जाएंगे ज़ालिम की हिमायत न करेंगे
एहराग कभी तरके रवायत न करेंगे 
क्या कुछ न मिलेगा है जो कभी तुझसे मिले थे
अब तेरे न मिलने की शिकायत न करेंगे।
शत बीत गई तो गुजर जाएगा दिन भी, 
हर लहजा जो गुजरी वो हिकायत न करेंगे, 
ये फ़करे दिले जार का, आज़ाना बहुत है, 
शाही न मांगेंगे विलायत न करेंगे। 
हम शेख न लीडर, न मुसाहिब, न सहाफी, 
जो खुद नहीं करते वो हिदायत न करेंगे"

... मौलाना हसरत मुआनी पर फैज़ का ट्रिब्यूट
*****

डाकिये की ओर से: : यह ऑडियो रेकॉर्डिंग को सुनकर लिखा गया है... उर्दू शब्दों की भरपूर गलतियाँ होंगी. तो मुआफी.... और अब फिल्म निकाह का ग़ुलाम अली साहब की आवाज़ में 'चुपके-चुपके रात दिन... " भी सुन आइये जिसे मौलाना हसरत मुआनी से लिखा है. 

वक़्त-ए-रुखसत अलविदा का लफ्ज़ कहने के लिए,
वो तीरे सूखे लबों का थरथराना याद है.

बेरुखी के साथ सुनना दर्द-ए-दिल की दास्ताँ 
और कलाई में तेरा वो कंगन घुमाना याद है.
(यह दोनों शेर ऑफ़ थे रिकॉर्ड हैं ) साथ बने रहने का शुक्रिया.
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...