Tuesday, December 28, 2010

बहरे वक्त मे बिनायक सेन होना

    सच एक भयावह शब्द होता है। एक मुश्किल वक्त मे सच की मशाल थामने वालों को यंत्रणाओं के दौर से गुजरना पड़ता है। निरंकुश ताकतों के खिलाफ़ आवाज उठाने की भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। और अगर वह निरंकुश ताकत सरकार की हो जिसके हितों को आपका सच बोलना नुकसान पहुँचा सकता है तो एवज मे आप राजद्रोही भी करार दिये जा सकते हैं। डॉ बिनायक सेन को छत्तीसगढ़ के ट्रायल-कोर्ट द्वारा उम्रकैद की सजा देना इसलिये नही चौंकाता है कि हमें राजसत्ता से उनके लिये किसी रियायत की उम्मीद थी, बल्कि इसलिये ज्यादा व्यथित करता है कि राजनैतिक व्यवस्था से हताश इस देश के आम आदमी की मुल्क की न्याय-प्रणाली मे अभी भी कुछ आस्था बाकी थी। डॉ सेन को 120B, 124A के चार्जेज़ के अलावा बहुविवादास्पद ’छत्तीसगढ स्पेशल पब्लिक सिक्योरिटी एक्ट-2005’ और UAPA के अंतर्गत सजा सुनाई गयी।

   ’व्हाट इज डेमोक्रेसी’ मे प्रख्यात संवैधानिक कानूनविद जॉन ओ फ़्रैंक कहते हैं- ’सत्ता की निरंकुशता के लिये एक असरदार हथियार होता है अपने सरकार के विरोधियों पर राजद्रोह का जुर्म लगा देना। इसलिये राजद्रोह संबंधित कानून बनाते वक्त इस बात का खास खयाल रखना चाहिये कि सत्ता द्वारा उन कानूनों का इस्तेमाल अपनी नीतियों के आलोचकों को खामोश करने के लिये न किया जाने पाये।’ इतिहास देखें तो दुनिया की तमाम लोकतांत्रिक सरकारें भी राजनैतिक विरोधियों को शांत करने के लिये संदिग्ध कानूनों का सहारा लेते पायी गयी हैं। लातिन-अमेरिकी या तमाम अफ़्रीकी मुल्कों के राजनैतिक इतिहास मे ऐसे अनगिन उदाहरण मिल जाते हैं। मगर सबसे अहम्‌ तथ्य यह है कि कानून का ऐसा गैरकानूनी इस्तेमाल अंततः मुल्क के लोकतांत्रिक मूल्यों के लिये ही घातक सिद्ध होता है। भारत के लिये भी डॉ बिनायक सेन की सजा का उदाहरण न तो पहला है न ही आखिरी होगा।

   डॉ सेन पर माओवादियों का साथ देने और भारतीय राज्य के खिलाफ़ युद्ध छेड़ने की साजिश का जुर्म लगाया गया था। क्या छत्तीसगढ़ सरकार के लिये डॉ सेन इतना बड़ा खतरा हैं कि उन्हे खामोश करा दिये जाने की जरूरत पड़े? पुलिस उन्हे फ़र्जी इनकाउंटर मे भी मार सकती थी या एक्सीडेंट भी करा सकती थी। मगर उन्हे कानून की रोशनी मे अपराधी करार दिये जाना इसलिये ज्यादा जरूरी था कि आम नागरिकों के बीच उनकी विश्वसनीयता को मारा जा सके। ताकि उस सच की धार को भोथरा किया जा सके जो सरकार की निरंकुशता के क्रूर चेहरे को बेनकाब करता था।

   सरकार की नजर मे खतरनाक यह इंसान दरअस्ल ख्यातिप्राप्त पीडिएट्रिशियन, स्वास्थ्य-सेवी और सामाजिक अधिकारों का प्रखर कार्यकर्ता था जिसे अपने कार्य के लिये देश-विदेश के तमाम पुरस्कारों के साथ ’ग्लोबल हेल्थ एंड ह्यूमन राइट्स’ के लिये जोनाथन मैन अवार्ड मिल चुका था। डॉ सेन जो प्रतिष्ठित CMC इंस्टीट्यूट से मेडिकल के टॉपर स्टुडेंट रहे थे मगर उनकी गलती यह थी कि शिक्षा के इस स्तर पर जब लोग विदेश जा कर पैसा कमाने की अंधी दौड़ मे शामिल होने के सपने देखते हैं तब उन्होने  देश के उन उपेक्षित और ग़रीब हिस्सों मे काम करने को प्राथमिकता दी जहाँ मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाओं की सबसे ज्यादा कमी थी। पिछले तीस सालों से छत्तीसगढ़ के बेहद पिछड़े आदिवासी इलाकों मे निःस्वार्थभाव से जन-स्वास्थ्य के क्षेत्र मे उनके अथक काम का नतीजा है कि वहाँ के लोकल स्वास्थ्यसेवी भी यह मानते हैं कि उनके प्रयासों से आदिवासी इलाकों मे शिशु-स्वास्थ्य की हालत सुधारने मे बड़ी मदद मिली। मुल्क के पिछड़े हिस्सों मे चिकित्सा सेवा मे अपनी जिंदगी समर्पित कर देने वाले इस शख्स को उसी मुल्क का दुश्मन करार देने की जरूरत कैसे महसूस हो गयी?

   यहाँ मुझे रेणु की कालजयी कृति ’मैला आँचल’ के अहम्‌ पात्र डॉ प्रशांत की याद आती है। मुल्क की आजादी के वक्त की इस कथा मे वो बिहार के पिछड़े और ग्रामीण इलाके मे लोगों को मलेरिया जैसी बीमारी से निजात दिलाने का सपना ले कर जाता है। मगर उस इलाके मे रिसर्च के दौरान अपना वक्त गुजारने के बाद उसे तब बड़ा धक्का लगता है जब उसे यह समझ आता है कि मलेरिया से भयावह तरीके से ग्रसित उस इलाके की असल बीमारियाँ मलेरिया आदि नही वरन् उससे इतर और खतरनाक थी। कुनैन मलेरिया का इलाज कर सकती थी मगर गरीबी का नही! जंगली वनस्पति बुखार जैसे रोगों को ठीक कर सकती थी मगर सामाजिक-भेदभाव जैसी खतरनाक बीमारी को नही! और इन असल बीमारियों का इलाज किये बगैर कोई हालत संवरने वाली नही थी।

   डॉ सेन का हाल भी ऐसा ही रहा। डॉ सेन का जुर्म यह रहा कि उन्होने आदिवासियों के लिये काम करते हुए उनके अधिकारों की बात की, उन पर हो रहे जुल्मों का जिक्र किया। उन्होने हिंसा का हमेशा सख्त विरोध किया चाहे वह माओवादियों की हो या सरकारी बलों की! डॉ सेन पुलिस और पुलिस समर्थित गुटों द्वारा व्यापक पैमाने पर किये जा रहे भूमि-हरण, प्रताड़नाओं, बलात्कारों, हत्याओं को मीडिया की रोशनी मे लाये; पीडित तबके के लिये कानूनी लड़ाई मे शामिल हुए। उनका अपराध यह रहा कि वो उस ’पीपुल’स यूनियन फ़ॉर पब्लिक लिबर्टीज’ की छत्तीसगढ़ शाखा के सचिव रहे, जिसने मीडिया मे ’सलवा-जुडुम’ के सरकार-प्रायोजित  अत्याचारों को सबसे पहले बेनकाब किया।

   इतने गुनाह सरकार की नजर मे आपको कुसूरवार बनाने के लिये काफ़ी है। फिर तो औपचारिकता बाकी रह जाती है। इस लोकतांत्रिक देश की पुलिस ने पहले उन्हे बिना स्पष्ट आरोपों के महीनो जबरन हिरासत मे रखा। फिर कानूनी कार्यवाही का शातिर जाल बुना गया। सरकार तमाम कोशिशों के बावजूद उनकी किसी हिंसात्मक गतिविधि मे संलग्नता को प्रमाणित नही कर पायी। सरकार के पास उनके माओवादियों से संबंध का कोई स्पष्ट साक्ष्य नही दे पायी। पुलिस का उनके खिलाफ़ सबसे संगीन आरोप यह था कि जेलबंद माओवादी कार्यकर्ता नरायन सान्याल के ख़तों को दूसरे व्यक्ति तक पहुँचाने का काम उन्होने किया। मगर इस आरोप के पक्ष मे कोई तथ्यपरक सबूत पुलिस नही दे पायी। उनके खिलाफ़ बनाये केस की हास्यास्पदता का स्तर एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि सरकारी वकील अदालत मे उन पर यह आरोप लगाता है कि उनकी पत्नी इलिना सेन का ईमेल-व्यवहार ’आइ एस आइ’ से हुआ था। मगर बाद मे अदालत को पता चलता है कि यह आइ एस आइ कोई ’पाकिस्तानी एजेंसी’ नही वरन दिल्ली का सामाजिक-शोध संस्थान ’इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट’ था। फ़र्जी सबूतों और अप्रामाणिक आरोपों के द्वारा ही सही मगर पुलिस के द्वारा उनको शिकंजे मे लेने के पीछे अहम्‌ वजह यह थी कि उनके पास तमाम पुलिसिया ज्यादतियों और फ़र्जी इन्काउंटर्स की तथ्यपरक जानकारियां थी जो सत्ता के लिये शर्म का सबब बन सकती थी।

   सरकारी-तंत्र की ज्यादतियों के शिकार दंतेवाड़ा के वो अकेले ऐसे कार्यकर्ता नही है। उनके अलावा भी तमाम सामाजिक कार्यकर्ताओं को सरकारी मनमानी का विरोध करने के एवज मे पुलिसिया प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा है। एक नाम हिमांशु कुमार का है। स्वतंत्रता सेनानी के पुत्र और प्रखर गांधीवादी हिमांशु  उस इलाके के आदिवासियों के लिये दो दशकों से ’वनवासी चेतना आश्रम’ नामक संस्था बना कर काम कर रहे थे। उनके आश्रम को जबरन तरीके से पुलिस द्वारा बार-बार जमींदोज किया गया है। आदिवासियों पर हुई ज्यादतियों की सरकारी रिपोर्ट करने के एवज मे उन्हे भी राजसत्ता का शत्रु करार दिया गया। लिस्ट आगे भी है। मगर अहम्‌ बात यह है कि समाज के अंधेरे और उपेक्षित तबके के उत्थान के लिये काम करने वाले इन अहिंसक समाजसेवियों को सरकार द्वारा एक-एक कर निशाने पर लेते जाने से कितने लोगों मे उत्साह रह जायेगा वहाँ जा कर काम करने का? फिर उन तमाम वंचित और शिकार लोगों की आवाज कौन बनेगा इस मुल्क मे? कौन उन्हे बचा पायेगा हमारी अंधव्यवस्था का शिकार होने से? और वे लोग कब तक हमारे आर्थिक विकास की कीमत अपनी जमींन और जान से चुकाते रहेंगे?

     अहम्‌ बात यह भी है कि ये लोग सरकार की लोकहित की मंशा और उसकी काबिलियत पर सवाल खड़े करते हैं। ये सवाल तकलीफ़देह हैं। कैसे तमाम सरकारी योजनाओं के बावजूद राज्य मे गरीबी-रेखा से नीचे की जनसंख्या पिछले दशक भर मे 18 लाख से बढ़ कर 37 लाख हो गयी? खनिज संसाधनों के हिसाब से देश के सबसे अमीर राज्यों मे से एक मे किस वजह से 70 प्रतिशत से ज्यादा आबादी अपने बल पर पर्याप्त खाने को नही जुटा पाती? पिछले दशक से योजनाबद्ध भूमि-हड़प कार्यक्रम के बहाने कैसे राज्य की प्रचुर खनिज संपदा उद्योगपतियों और मुनाफ़ाखोरों के हवाले की जा रही है? सवाल और भी हैं!

   बात सिर्फ़ डॉ सेन के मुकदमे तक सीमित रहती तो अलग बात थी। आजादी के पिछले साठ सालों मे अगर हमने कोई चीज संजो कर रखी है, अगर किसी चीज पर हमारी सबसे ज्यादा आस्था रही है तो वह हमारा अच्छुण लोकतंत्र है। तमाम भीतरी-बाहरी उथल-पुथल राजनैतिक-सामाजिक परेशानियों के बावजूद किसी भी आम नागरिक का देश के लोकतांत्रिक मूल्यों मे भरोसा रहा है, लोकतंत्र की प्रक्रिया ने उम्मीद की शमा जलाये रखी कि तमाम समस्याओं का हल सिस्टम मे रहते हुए तलाशा जा सकता है! मगर इस लोकतंत्र का ढ़ाँचा पिछले कुछ वक्त मे जैसे कमजोर हुआ है और जिस तरह लोकतंत्र के स्तंभों की विश्वसनीयता खंडित हुई है वह देश के भविष्य के प्रति आशावादिता पर बड़ा प्रश्नवाचक चिह्न लगाती है। पिछले कुछ वक्त मे मुल्क के राजनैतिक तंत्र के प्रति हमारी आस्था लगभग खतम हो चुकी है, कि अब लाखों करोड़ के घोटाले भी हमारी आदी हो चुकी चेतना को आश्चर्यचकित नही कर पाते। ब्यूरोक्रेसी भ्रष्टाचार के सागर मे ऐसी आकंठ डूब चुकी है कि किसी सरकारी अधिकारी के भ्रष्ट न होने की बात हमें ज्यादा हैरान करती है। तो मीडिया के बड़े तबके के उद्योगपतियों और राजनीतिज्ञों के हाथ बिके होने की खबर इस बार सिस्टम की पतनशीलता का नया आयाम बन रही है। ऐसे कठिन वक्त मे ले-दे कर देश का न्याय-तंत्र यहाँ के हारे हुए आदमी की आँखों की आखिरी उम्मीद की लौ के तरह लगता था। ऐसे मे डॉ सेन जैसे उदाहरणों मे अदालत की विश्वसनीयता पर सवाल उठ जाना खतरनाक है। सरकार द्वारा उसको भी अपने फायदे के लिये इस्तेमाल किये जाने की घटनाएं इस उम्मीद के भी असमय बुझ जाने की आशंका बनती जा रही हैं।

   यह एक कठिन और अँधेरा समय है। इस साल ने गुजरते-गुजरते हमारी राजव्यवस्था की कुरूपतम होती जा रही शक्ल को आइना दिखा दिया है। अब पौने दो लाख करोड़ के टेलिकाम-घोटाले जैसे स्कैम्स हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का नियमित हिस्सा बन चुके हैं। हमें पता है कि उन घोटालों मे लिप्त ताकतवर नेताओं का इस देश की व्यवस्था कुछ भी बिगाड़ नही पायेगी। उनकी हिफ़ाजत के लिये कानूनी किताबों के तमाम लूप-होल्स हैं, देश के सबसे महँगे वकीलों की जोरदार फौज है, भष्ट और नाकारा हो चुका तंत्र है। हम जानते हैं कि इससे पहले कि कितने स्कैम्स या तो कभी खुले ही नही और अगर खुले तो उनकी फ़ाइलें वक्त के साथ दीमकें चाट गयीं। हमें पता है कि देश मे पॉलिटिक्स-ब्यूरोक्रेसी-इंडस्ट्रियलिस्ट्स-मीडिया का खतरनाक गठजोड़ दिनों-दिन मजबूत ही होगा और देश के संसाधनों पे उनकी लूट-बाँट दिनों-दिन बढ़ती ही जायेगी। हमे मालूम है कि राजा जैसे मिनिस्टर्स चेन्नई-हाइ-कोर्ट के न्यायमूर्ति आर रघुपति जैसे जजों को आगे भी धमकाते रहेंगे और उनकी शिकायत कहीं सुनी नही जायेगी! हमें यह भी पता है कि अगर कर्नाटक के लोकायुक संतोष हेगड़े जैसा कोई ईमानदार अफ़सर सरकारी अंधेरगर्दी की जाँच जैसा कदम उठायेगा भी तो उसके रास्ते मे अगम्य रोड़े खड़े कर दिये जायेंगे और अंततः कुछ नतीजा नही होगा। हम जानते हैं कि देश का कृषि मंत्री आगे भी खेल की पालिटिक्स मे बेशर्मी से बिजी रहेगा और उसके ही राज्य के किसान थोक के भाव आत्महत्या करते रहेंगे। हम यह भी जानते हैं कि देश का मीडिया आगे भी सत्ता और बाजार के सावन के झूलों मे पींगे लेता रहेगा और हमे सावन के अंधों के तरह हर तरफ़ हरा ही दिखाया जायेगा। हमें अंदाजा है कि मुल्क के कुछ लोगों को अरबपति बनाने के वास्ते बाकी के करोड़ो लोग गरीबी-रेखा के नीचे खिसकते रहेंगे, कि उद्योगपतियों के आरामगाहों के बनाने का बजट जितना बढ़ता रहेगा, मुल्क मे भूमिहीन होते लोग उसी अनुपात मे बढ़ते रहेंगे। हमें पता है कि आगे भी हमें देश की आठ से दस फ़ीसदी दर से बढ़ती अर्थव्यवस्था के स्लोगन दिखा कर उन स्लोगन्स के पीछे के अंधेरे को हमारी अज्ञानता से ढँक दिया जायेगा! हम जानते हैं कि अगले सालों मे भी हमें खुद को व्यस्त रखने के लिये मुन्नी की बदनामी और शीला की जवानी मे से ज्यादा उत्तेजक क्या है जैसे सवालो के जवाब एस एम एस करने को मिलते रहेंगे? मगर, आज लोकतंत्र के सबसे बड़े वार्षिक उत्सव से कुल अट्ठाइस दिन दूर खडे हुए हम यह भूले जाते हैं कि हमारे मिडिल-क्लासीय ’हू-केयर्स-एट्टीट्यूड’ के विषदंश से ग्रसित हमारा लोकतंत्र पल-पल कोमा मे जाता दिखता है।

   तो आइये हम अपने-अपने ड्राइंग-रूमों मे टीवी पर चलते चार्टबस्टर गानों का वोल्यूम इतना तेज कर दें कि हमें शहरी चकाचौंध के बाहर से आती चीखें सुनाई न दें!...कि हमारे वक्त के कान इतने बहरे हो जायें कि किसी बिनायक सेन जैसे सिरफिरे लोगों की आवाजें हमारे आनंद मे बाधक न बने।..आइये इस पल मे ही जिंदगी को भरपूर जी लें, क्या पता आदमखोर होते जा रहे तंत्र के अगले शिकार हम ही हों !

Tuesday, December 21, 2010

चींटी और टिड्डा

'चींटी और टिड्डा ' कहानी तो सबने सुनी होगी? भारत में भी हुआ था एक बार यही, जब चींटी ने पूरी गर्मी में मेहनत करके अपने लिए घर बनाया और टिड्डा?वो तो ठहरा मस्त मौला , तो इस कहानी में कैसे सुधर जाता? जाड़ों के दिनों में चींटी मज़े से अपने 3 बेडरूम किचन ड्राइंग रूम  अपार्टमेन्ट  में २४*7 फ़ूड , एनर्जी और वाटर सप्लाई के मज़े लेने लगी...


...यहाँ तक तो सब ठीक लेकिन ये भारीतय टिड्डा था....
चुप क्यूँ रहता?


टिड्डे ने एक प्रेस कांफ्रेंस आयोजित की, और अपनी व्यथा सबको सुनाई , और जानना चाहा देश की जनता से कि मैं कैसे ऐसे रह सकता हूँ जबकि देश में एक 'चींटी वर्ग' भी है?

NDTV, बीबीसी, INDIA TV, The Times Of India आदि सभी मुख्या न्यूज़ चैनल और अख़बारों ने इस घटना को भूखों मरते टिड्डे कि फोटू और उसके बगल मैं चींटी की वाटर पार्क में खिचवाई फोटू के साथ दिखाया.

आखिर एक बेबस टिड्डा ऐसे कैसे मर सकता है ? फिर क्या था?

अरुंधती रॉय ने चींटी के घर के सामने धरना दिया....

मेधा पाटेकर टिड्डे के साथ आमरण अनशन में बैठ गयी...

मायावती ने इसे अल्पसंखकों के खिलाफ षडयंत्र कहा....

कोफ्फी अन्नान ने भारतीय सरकार को 'टिड्डे की मूलभूत सुविधाओं' का ख्याल न रखने हेतु आड़े हाथों लिया.




टिड्डे के ब्लॉग 'चींटी के पार' में कमेन्ट और फोलोवर  १००० के पार पहुँच गए थे.

'स्वर्ग और चिरस्थायी शांति के लिए अग्रेषित करें , और न करने पर परमेश्वर के प्रकोप के लिए तैयार रहे ' टाइप चैन मेल की बाढ़ ही आ गयी जिसमें माइक्रोसॉफ्ट वाले कथित तौर पर टिड्डे को हर फॉरवरडेड  मेल में 1 पैसा देने वाले थे .

विपक्षी दल के नेताओं ने सदन का बहिष्कार किया और लोक सभा ,राज्य सभा की कार्यवाही नहीं चलने दी.

लेफ्ट फ्रंट ने बंगाल बंद का आह्वाहन किया.

केरला ने न्यायिक जांच करवाने का केंद्र सरकार से अनुरोध किया.

CPM ने तुंरत ही एक कानून पारित किया जिससे की चींटी को अत्यधिक क्ष्रम करने से रोका जा सके  तथा चींटी और टिड्डे के बीच गरीबी का साम्यवाद आ जाए .

ममता बनर्जी ने टिड्डे के लिए भारतीय रेल की सभी गाड़ियों में मुफ्त एसी कोच की व्यवस्था करवा दी.
'टिड्डा रथ' नामक एक स्पेशल रेल भी चलाई  गयी .


अर्जुन सिंह ने आनन फानन में टिड्डे के लिए सभी सरकारी विद्यालयों एवं इन्सट्युटज़   में शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण दिए  जाने की घोषणा कर दी .

चींटी को 'पोटागा' के अर्न्तगत दोषी पाया गया.चूंकि चींटी के पास देने के लिए कुछ नहीं बचा अतः उसका घर कुर्क कर दिया गया और एक शानदार समारोह में टिड्डे को दे दिया गया.ये शानदार समारोह सभी टीवी चंनल में लाइव दिखाया जा रह था.

अरुंधती रॉय ने इसे ' न्याय की जीत' की संज्ञा दी

लालू ने इसे 'सामाजिक न्याय ' कहा .

सीपीएम ने कहा की ये ' क्रांतिकारी दलित के पुनरुत्थान ' की कथा है.

कोफ्फी अननन ने टिड्डे को UN जनरल असेम्बली में आमंत्रित किया.

कई सालों बाद ...
.....
...........

...चींटी विदेश में बस गयी.

आरक्षण के बावजूद कही भारत में अब भी हजारों टिड्डे भूख से मर रहे हैं.

...कई चींटियों को खोने और कई टिड्डों को पालने के कारण भारत अब भी विकासशील देश है.

(Inspired From A Spam Mail)

Monday, December 6, 2010

मरते-मरते बचें कि बचते-बचते हुए मरते उम्र बीत गई

डाकिये की ओर से : अबकी जो ख़त आपकी बालकनी में फैंक रहा हूँ, उसमें कोई बड़ी बड़ी बातें नहीं, बस एक बड़ी सी दिशा... जरा सा गंभीरता का लबादा उतरने की कोशिश (क्योंकि इसका मार्ग भी इधरईच से होकर जाता है)
***



और बॉस ?"
"बढ़िया..."
"कैसा चल रहा है ?"
"क्या चलना है भैया, जैसी दुनिया की चाह, वैसी हमारी. है की नहीं ?"
"वो तो है.. "
"और तुम्हारा ?"
"हमारा भी वोई..."
"मतलब ?"
"कट रही है बॉस... जित्ती कट जाय."
"इसे कटना कहते हो गुरु तो फिर हमारी जैसी को तो ना जाने क्या ..."
"कटना ही है भैया..."
"सुना है कि उधर भोत जोरदार रहा आपका ?"
"काहे का जोरदार, बस ऐसेई.. दाल रोटी चलती रहे..."
"ऐसेई, कैसे ?
"बस, ऐसेई.. चाय पीयोगे ?"
"हो जाए."
"और ?"
"जिन्दा हैं देख ही रहे हो."
"अंटी?, बच्चे?"
"ठीकठाक.."
"वो अपने बरेली वाले भाईसाब ?"
"डेथ हो गई यार.. तीन-तीन छोटे बच्चे..."
"अरे!"
"और क्या ! कैंसर का क्या कर लोगे?"
"सही बात.. और तेरा गोविन्दपुरा वाला काम?"
"निकाल दिया सेठ ने.. मैनेजर चुगली लगाता रहता था अपनी... हरामी, स्साला..."
"फिर ?"
"फिर क्या? देखते हैं..."
"बोले तो अपने सेठ से बात करूँ ?"
"कित्ते मिलेंगे ?"
"भोत तो नहीं ? पर सुकून वाला आदमी है. पैसे की बात तेरे को करनी होगी. मिलवाने का जिम्मा हमारा..."
"चल, कल्ले बात..."
"बड़ी गर्मी है मची है भेन***..."
"है तो. पर लू-लपेट में न निकलो तो काम नहीं चलता"
"प्याज़ धरा कर जेब में, लू का शर्तिया काट..."
"मंहगा हो गया प्याज़ भी भेन***"
"अबे, एक प्याज़ में कौन सी जायदाद लूट जानी है ?"
"हमने तो एक बात कही, सब मंहगा है. सस्ता क्या है ?"
"सही बात... और ?.. भाभी ?
"स्साला... फिर बीमार. समझ नहीं पड़ता.."
"जे डाक्टर वैद वाला मसला नहीं है. छाया पड़ी है, सलकनपुर वाले बाबा जी कने दरबार में चला चल..."
"वो तो जब दरबार में पुकार लें, तब जाना ही पड़ेगा. आदमी के हाथ में क्या है ?"
"सही कह गए भैया..."
"अच्छा सुन."
"बोल न."'
"कुछ दे यार, सौ, दो सौ,.. बाद में चुकता कर दूंगा.."
"पचास ले ले... अभी इत्ता ही बन पायेगा..."
"चल. जो हो..."
"बीडी पीएगा ?"
"वैसे, वो चाय ले आया है... 
"चाय भी पी और बीडी भी..."
"और ?"
"बस..."
*****

शिक्षा:  चाय-बीडी चल रही है, जीवन चल रहा है. 
        हो सकता है कि आपको लगे कि यूँ ही फ़ालतू बातें कर रहे हैं दोनों जन. पर जीवन तो इन्ही फ़ालतू-सी बातों में बिखरा हुआ है. यह बातें बड़ी कीमती हैं. अगली बार, फूटपाथ या यहाँ - वहां खड़े, बैठे लोगों को जब यूँ बतियाता देखें तो इसे फुरसतिये लोगों की फ़ालतू बातें न मान लें. जीवन यही है. बेहद कीमती कहानियां बोली जा रही हैं इन निरर्थक -से प्रतीत होते संवादों में.
*****
साभार : इंडिया टुडे, कटाक्ष : ज्ञान चतुर्वेदी. 
(अंक : 8 दिसंबर, 2010)
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