Saturday, December 31, 2011

कविता के पन्नों मे नया साल: जेनिफ़र स्वीनी


अभी जब एक साल से दूसरे साल तक सत्ता-हस्तांतरण का वक्त नजदीक आता जा रहा है।ऐसे मे गुनगुनी धूप मे बैठ कर चाय की चुस्कियों के संग गुजर गये साल पर आत्मचिंतन करना सबसे स्वाभाविक और आरामदायक काम होता है। खैर, नया कैलेंडर टांगने से पहले पुराने हो गये इस कैलेंडर पर लगी तमाम उम्मीदों, खुशी, भरोसे, डर, आशंकाओं, कसमों की चिप्पियाँ साल के कुल जमा-हासिल की एक बानगी होती हैं। गुजरते साल के ऐसे ही हासिलों और आने वाले साल से बावस्ता उम्मीदों की इबारत को कविता के चश्मे से परखने की कोशिश हम भी करते हैं। सो आइये अगले कुछ दिनों मे देखते हैं कि कोई कवि वक्त के इस मुकाम को कितनी अलहदा नजरों से परख पाता है। इस सिलसिले मे सबसे पहले पेश है जेनिफ़र स्वीनी की एक अंग्रेजी कविता का हिंदी मे तर्जुमा। अमेरिका की इस युवा कवियत्री को कम उम्र मे ही कई अवार्ड्स से नवाजा जा चुका है। उनके कविता संकलन ’हाउ टु लीव ऑन ब्रेड एंड म्यूजिक’ (पेरुगिया प्रेस) की इस कविता मे जिंदगी की कुल गणित के टुकड़े बिखरे से नजर आते हैं।


बीत गये साल के लिये चंद कतरनें

मैने पाया है कि
औसतन विषम संख्या वाले साल
ज्यादा बेहतर रहे हैं मेरे लिये

मै उस दौर मे हूँ जहाँ मुझे हर मिलने वाला
लगता है उस जैसा
जिसे मै पहले से जानती हूँ

पतझड़ का मौसम बिना हिचकिचाहट के
मुझे धकेल देता है उन चीजों की स्मृतियों मे
जो कभी हुई ही नही मेरी जिंदगी मे

केंचुली बदलता है आसमान
और मुझे नही पता कि इसकी वजह ग्लोबल-वार्मिंग है
या कि वायुमंडल बस खुद को तैयार करता है
कि सह सके और ज्यादा नयी चमकदार यंत्रणायें

मेरे अंदर हिलोरें मारती है
आइसलैंड जाने की बेताब ख्वाहिश

तमाम बुरी चीजों के बावजूद
अभी भी हम भरे हुए हैं विचारों से
जो कि उतने ही संभव हैं
जितने कि वंध्या फ़ल

मुझे सख्त अफ़सोस होता है
कि मुझे ही समझाना होगा
नर्सरी के बच्चों को
कि सूर्यास्त और प्रदूषण के बीच रिश्ता क्या है

और क्या पता है तुम्हे
कि शुक्र-ग्रह पर हमारी उम्र
अभी एक साल से भी कम की होगी

तब यहाँ दो आसमान थे
एक जिसमे भरते थे हम अपनी उड़ान
तो दूसरे मे हम दफ़्न करते खुद को

शुक्र है कि अभी भी
मेरी दिलचस्पी कामुक विलासिता की चीजों मे नही,
मसलन बाथरूम के ऐशो-आराम के सामान

हम साथ-साथ ही हुआ करते थे हर वक्त
कहानी मे

और उसकी शादी के दिन
उसके सीने मे गड़ा पत्थर
कुछ-कुछ तो पिघल सा गया था

कभी-कभी लगता है मुझे
कि जैसे परिंदे उड़ जाते हैं मेरे अंदर से
अनंत की ओर।





(प्रथम चित्र: अमेरिकन कवियत्री- जेनिफ़र के स्वीनी)
(द्वितीय चित्र: The Key -अब्स्ट्रैक्ट-एक्सप्रेशनिज्म के अगुआ ख्यात अमेरिकन पेंटर जैक्सन पोलॉक)

Tuesday, December 13, 2011

अप्रीत की प्रथम कविता (2006 - 20.....)

{ जब हम नहीं जानते थे कि पैच अप , ब्रेक अप क्या होता है, गल्फ़्रेंड बायफ़्रेंड सरीखे शब्द भावनाओं की तौहीन थे सौ मीटर के रास्ते में बस इक हाथ को निहारा जाता था, और उन सभी को कोसा जाता था जिन्हे उन्हें छूना नसीब होता था । बैठक की खिड़की देर तक आक्यूपाईड रहती थी , और अल्मोड़ा हमारा फ़ेवरेट शहर होने का कारण भी था   }


जब हमने जीवन पाया यह ,
था यह जीवन सांसो का खजाना ।
था जीवन भर साथ निभाना ,
नियति का यह खेल पुराना ।

जीवन इक नाटक बन बैठा,
और तुम थी बचपन विदिशा का ।
बिन जाने , बिन पहचाने ,
मुझको भी था मंचन दिखलाना ।

जब नवयौवन दहलीज पे आया,
जीवन था रंगो का जमाना ।
जब तक ना मिले थे हम,
जग को हमने झूठा जाना ।

आंख हमारी थी सराय,
जीवन जीने का था बहाना ।
चेहरा देख तुम्हे ढूंढा था,
ह्र्दय समझ था तुमको पाना ।

शायद आँखे उलझ गई थी,
पर जल्दी ही समझ गई थी ।
कि भीड़ बीच ही वह मन होगा ,
काया का वह कुंदन होगा ।
 
फिर क्षण वह तुम्हें साथ लाया,
संसार
ज्ञान से जान ना पाया ।
तुम्हे समझ कर इक पथ राही,
तुम्हें छोड़ कर मैं मुड़ आया ।
 
पर जैसे खुद को खो चुका था,
साया यह तन हो चुका था ।

तब कली तने को सींच रही थी ,
और राह पथिक को खींच रही थी ।

आज भी जाओ , आज भी देखो,
क्षण वह आज भी वही खड़ा है ।
आज भी तीर सा नयन तुम्हारा ,
आंख पे मेरी तिरछा पड़ा है ।

प्रेम को देनी पड़ी परीक्षा,
मोहित मन की काली इच्छा ,।
तुम्हे भूल जब निकल गया पर,
मुड़ा कहीं जब तुम्हें ही पाया ।

पर शूल मध्य भी पुष्प खिले हैं ,
शैल पे भी पीपल निकले हैं,।
तुमने मुझको , मैंने तुमको,
बिन कहे सब कुछ समझाया ।

यह मेरी विनती तुमसे है,
मैं जो तुमको अब बतलाऊं ।
लज्जित मेरा अहम तो होगा,
अब काँपू तो काँप ही जाऊं ।

श्वेत पंख जब उग आएंगे,
ना वियोग में प्राण गंवाना ।
साथ तुम्हारे सदा रहूंगा,
तुम बिन मुझको कुछ ना पाना।

प्रेम पारायण पल्लव हूं तो,
पहली पावन बेला बन जाना ।
तुम जीवन तरुणता मेरी.
साख पे तुम ही पुष्प खिलाना।

बन जाऊं जब नयन सृदश मैं,
दृश्य जगत यह तुम बन जाना ।
नैनों में रसधार बहाना,
मुझको प्रेम का सार बताना ।

बन जाऊं जब मैं श्रवण ,
मधुर गीत तब तुम बन जाना ।
सरगम बन के संग लहराना,
साज मेरा तुम ही कहलाना ।

बन जाऊं जब मधुसूदन मैं,
राधिका तुम बन जाना ।
स्वांग रचाकर मुझे नचाना,
सर्व जगत को नृत्य कराना ।

 
बन जाऊं जब ऋतु राज मैं,
हरित श्रंखला तुम बन जाना ।
कोपल बन के तुम लहराना,
अमर प्रेम का राग सुनाना ।


बन जाऊं जब मै मधु,
तुम बन जाना अमृत हाला ।
क्षुधा क्षुधा तब प्रेम बुझाए,
हरि कहें तब मधुशाला ।

बन जाऊं जब वन उपवन मैं,
मधुरलता तब तुम बन जाना ।
आलिंगन तब प्रेम कराए,
साथ शरीर  महकता जाए ।

 
बन जाऊं जब विजय मैं,
विजय श्री तब तुम बन जाना ।
प्रेम नगर अभिषेक कराना,
अभिलाषा का भवन सजाना ।

 
बन जाऊं जब आकुलता मैं,
प्रेम से तुम यह शीश झुकाना ।
सर्व जगत में मान कराना,
पर विजय में पर्व मनाना ।



बन जाऊं जब सोमसुधा मैं,
पन खाली तब तुम बन जाना ।
प्रेम लोक में पान कराना,
मुझे भी कुछ बूंदो से भिगाना ।

 
हो जाऊं जब हर्षित मैं ,
तुम मेरा सयंम बन जाना ।
जीवन का आधार हो कर के,
सब शंकाए निर्रथ कराना ।

बन जाऊं जब मैं अतुल,
तुल्य मेरे तब तुम बन जाना ।
सब से भिन्न प्रेम बन जाना ,
फिर भी अभिन्न ही कहलाना ।

शिव शंकर जब मैं बन जाऊं,
अटल जटाएं तुम बन जाना ।
भगीरथी सम प्रेम बहाना,
जग को मोक्ष द्वार दिखलाना ।

शाख हरी जब मैं बन जाऊं,
शिशिर मेरा तब तुम बन जाना ।
जड़ित रहें तब सभी कलाएं,
घट घट में मधुरस भर जाए ।

शरद ऋतु जन मैं बन जाऊं,
नरम धूप तब तुम बन जाना ।
पेड़ से जब बन पत्र गिरें तो,
मुझको संग संग ले उड़ाना ।

बन जाऊं जब प्रश्न तुम्हारा ,
मौन मेरा तब तुम बन जाना ।
बहलाना कभी औ कभी झुठलाना,
संग सपनों के सपनों में आना ।

 
बन जाऊं जब कमल नयन मैं,
लक्ष्मी पद तब तुम बन जाना ।
शेष पे जब हम संग विराजें,
क्षीर का तब यह सागर साजे ।

भ्रमर गुंज जब मैं बन जाऊं,
कमल सृदश तब तुम बन जाना ।
सकल सरोवर सब गुण गाएं,
कल कल की आवाज सुनाए ।


अधर खुले जब मैं बन जाऊं,
प्यास मेरी तब तुम बन जाना
नाद कंठ में प्रेम बजाए,
सुर गाए और तान सुनाना ।

बन जाऊं जब मुद्रिका मैं,
अनामिका तब तुम बन जाना ।
ह्रास प्रेम सशरीर नहीं हो,
मिलन प्रेम का अधीर नहीं हो।

 
भोर किरन जब मैं बन जाऊं,
संध्याए तब तुम बन जाना ।
दिन रात मिलन यह प्रेम कराए,
क्षितिज लालिमा रंग दिखलाए ।

 
कोमल पद जब मैं बन जाऊं,
झंकार मेरी तब तुम बन जाना ।
प्रेमिल रचना तब कविताएं ,
हो प्रेम रस में सब रचनाएं ।
 
आलिंगन जब मैं बन जाऊं,
स्पृश मेरा तब तुम बन जाना ।
मुख पुष्प सा खिल जाएगा
दर्पण स्वयं से लज्जाएगा ।

रंग बन बन के जब भी बरसूं,
फाल्गुन बन के तुम आ जाना ।
यौवन निखर के खिल आएगा ,
यह प्रेम पर्व तब कहलाएगा ।

अर्चन पर अक्षत बन जाऊं,
नीर मात्र में तुम समाना ।
राम भवन में जब जब राजे
मष्तक पर यह प्रेम विराजे।

मैं बनकर मैं कल बन जाऊं,
हम बनकर तुम आज बनाना ।
उज्जवल सा हर पल सुहाना,
प्रेम हमारा पर सदा पुराना ।

श्वेत अंबर से तुम हो सज्जित,
मुझको पर तुम श्याम रंगाना ।
सब छोड़ चुकी तब हुआ श्वेत रंग,
सब अपना कर अब श्याम रंगाना ।

पूर्ण हृदय से स्नेह करूं जब,
प्रियतम तुम प्रेयसी बन जाना ।
धीर अधीर भले हो जाऊं,
मधु नहीं मैं क्षुधा दीवाना ।

देख उठो जब प्यास किसी की,
उस प्यासे की प्यास बढ़ाना ।
अचरज का यह विषय है जानो,
पर क्षुधा रहस्य न तुमने जाना ।
 

आनंद नव मिलन का तुम्हें हुआ है
पालकी पे दुल्हन हो जाना
पर जब आंखो में पानी आए
नयन नीर है तुम्हें छुपाना


आज पिया की सेज तुम्हीं हो
प्रेम आंगन पर अर्पण हो जाना ।
निज मन की पहचान ना होगी,
यही जगत का चलन पुराना ।

 है हृदय तुम्हारे प्रेम घाट यह ,
तुमने तो बस इतना जाना ।
मुझसे पूछो तो बतलाऊं ,
यहां नगर बसे है एक पुराना ।

 
प्रश्न तुम्हारा समझ गया हूं,
तुमने नगर को वीरान जाना ।
इसमें महल है मन्दिर अनेकों,
मेरा ही पर हर ठिकाना  ।


हर मंदिर में तुम मूरत हो तुम,
अर्चन तुम पूजा भी हो ।
देखो मैं भी वहीं कहीं हूं
ढूंढ सको तो ढूंढ बताना ।


मैं हूं आंखो के भी आगे ,
अधरों पर भी फिर लेता हूं ।
नयन से निकला नयन में तेरे,
इन आंखो का यह मोती मैं हूं।


हृदय तुम्हारे वन उपवन भी,
तभी तो सांसे महक रही हैं ।
यहाँ भी मेरा कार्य वही,
मैं माली बन कर चहक रहा हूं।
 
चारो ओर फिरा पर कहीं ना पाया,
क्या विरह का यहाँ शोक नहीं है?
जब भीगा तो महसूस हुआ ,
मैं पानी बन के बरस रहा हूं ।

प्रियतम का वह लोक कहाँ है ?
कहाँ है वाणी वह प्रियतम की ?
कहाँ बरसता प्रेम है बहता ?
कहाँ हृदय का मेरे, स्वामी रहता ?
 
खुद में ही मैं समा रहा हूं ,
खुद ही के भीतर जा रहा हूं ।

हृदय लोक है यह प्रियतम का,

यह अनोखा दृपण तम का ।

आज बना मैं कलश चौखट पे ,
तुम कोमल पद मुझे छुआना ।
पग रखो धरा पर और हृदय पर,
अमिट छाप यहां छोड़ जाना ।

हृदय के सुर जब उठ बैठे,
हाथ मुझे है तुम्हे थमाना ।
इक इक बंधन का परिचय,
बंधन का यह हर्ष है जाना ।


आज यह जीवन मोड़ बना है,
इस राह है हमको साथ निभाना ।
तुम विश्वास अटल हो मेरा,
पग पग कर आगे बढ़ जाना ।

यह साथ शरीरों का दिखता है ,
हमने ह्र्दय का मेल कराना ।
शरीर अवश्य वर वधू बना है,
हृदय ब्याह है हमें रचाना ।


मैं नव जीवन आरंभ बना था ,
तुम अंतिम क्षण मृत्यु बन जाना ।
जीवन अगली कविता रचता देखो !
इक कली का वह इठलाना ।



"ओ रे लड़की !
कविता कितनी कविता जैसी होती है ना !!  "



Sunday, December 4, 2011

एक चक्र

पाओलो कोएलो की रचना 'THE ZAHIR' का एक अंश...
एक सुबह एक किसान ने एक मठ के दरवाजे को जोर से खटखटाया.जब दरबान ने दरवाज़ा खोला,किसान ने उसकी और अंगूरों का एक गुच्छा बढाया.
'प्यारे दरबान!ये मेरे खेत के सबसे अच्छे अंगूर है.कृप्या इन्हें मेरी और से उपहार के रूप में स्वीकार करें.'
'अरे क्यों,बहुत-बहुत शुक्रिया.मैं इनको सीधे मठादीश के पास ले जाऊंगा.वो ऐसे उपहार से खुश हो जायेंगे.'
'नहीं ! मैं ये तुम्हारे लिए लाया हूँ.'
'मेरे लिए ? लेकिन मैं तो कुदरत के ऐसे उपहार के लायक नहीं हूँ.'
'जब-जब मैंने दरवाजे पर दस्तक दी है इसे तुम्हीं ने खोला है.जब सूखे से फसल बरबाद हो गयी तब तुम्हीं ने मुझे रोटी और एक ग्लास शराब हर दिन दी है.मैं चाहता हूँ की अंगूरों का ये गुच्छा तुम्हारे लिए सूरज का थोड़ा सा प्यार,वर्ष का सौंदर्य और ईश्वर की चमत्कारी शक्ति तुम तक पहुंचाए.'
दरबान ने अंगूरों को वहां रख दिया,जहाँ वह उनको देख सके और पूरी सुबह उनकी मन ही मन तारीफ़ करने में बिता दी:वह सच में ही प्यारे थे.इसलिए उसने उनको मठादीश को समर्पित करना तय कर लिया.जिसके विवेकशील शब्द उसके लिए वरदान की तरह रहे थे.
अंगूरों से मठादीश बहुत प्रसन्न हुआ लेकिन तभी उसे याद आया की एक मठवासी बीमार है और उसने सोचा,'मैं यह अंगूर उसको दूंगा.कौन जाने कि इससे उसके जीवन में कुछ ख़ुशी आ जाये.'
लेकिन बीमार मठवासी के कमरे में अंगूर ज्यादा देर तक नहीं रहे क्योंकि उसने सोचा-'रसोईये ने मेरा इतना ध्यान रखा है,खाने के लिए मुझे अच्छे से अच्छा भोजन दिया है.मुझे यकीन है कि यह अंगूर उसे खुशी देंगे.'जब रसोईया दोपहर का खाना ले कर आया,तो मठवासी ने अंगूर उसे दे दिए.
'ये तुम्हारे लिए है,तुम प्रकृति के दिए हुए उपहारों के इतने पास रहते हो और तुम ही जान पाओगे कि इनका,ईश्वर की इस देन  का क्या करना है.'
अंगूरों के सौंदर्य पर रसोईया अवाक था,उसने अपने सहायक का ध्यान उनकी निर्दोषता की और दिलाया.वे इतने अच्छे थे कि उनकी सराहना शायद ब्रदर साक्रिस्तान से अधिक और कोई नहीं कर सकताथा,जो पवित्र संस्कार विधि के मुखिया थे जिनको मठवासी सच्चा संत मानते थे.
लेकिन ब्रदर साक्रिस्तान ने वे अंगूर सबसे छोटे एक लड़के को दिए,जो दीक्षा प्राप्त करने नया-नया आया था,ताकि वह समझ सके कि ईश्वरीय कार्य सृष्टि की छोटी से छोटी चीज़ में भी दिखता है.नवदीक्षित हृदय ईश्वर की महिमा से भर उठा.उसने इससे फले अंगूरों का इतना सुंदर गुच्छा पहले कभी नहीं देखा था.साथ ही उसे उस पहले दिन की याद आई जब वह मठ में आया था और उसकी भी जिसने दरवाज़ा खोला था,दरवाज़ा खुलने के संकेत से ही वह वहाँ लोगों के बीच था जो चमत्कारों का मूल्य जानते हैं.
अँधेरा होने से कुछ पहले वह अंगूर दरबान के पास ले गया.'इन्हें कहा कर आनन्द लो.तुम अपना अधिकतर समय यहाँ अकेले बिताते हो,इन अंगूरों से तुम्हें अच्छा लगेगा.'
तब दरबान ने समझ लिया की वह उपहार सच में उसके लिए ही था,उसने एक-एक अंगूर को स्वाद ले कर खाया और खुश होकर सोने चला गया.

Tuesday, November 1, 2011

पानी एक रोशनी है


डाकिए की ओर से: नहीं इसकी जरूरत नहीं थी लेकिन इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। नींद की दो गोलियां खा कर भी यदि गोधूलि बेला तक जागते रहें तो लानत है विज्ञान की तरक्की पर। ऐसे में केदारनाथ सिंह की कविताएं अच्छी हैं जो कंबल के बाहर निकलते और ठंडे होते पैर को गर्म करती हैं। बहुत बेचैनी में एक बेहतर कविता बहुत जिम्मेदारी से कंधे को कुव्वत देता हैं। तो आभार इसका कि जिसने अक्सर ही शरीर के अंदर विलुप्त होती कुछ प्रजाति को खोज निकाला है। 



*****

पानी एक रोशनी है

इन्तज़ार मत करो
जो कहना हो
कह डालो
क्योंकि हो सकता है 
फिर कहने का कोई अर्थ न रह जाए

सोचो 
जहां खड़े हो वहीं से सोचो
चाहे राख से ही शुरू करो
मगर सोचो

उस जगह की तलाश व्यर्थ है 
जहां पहंचकर यह दुनिया 
एक पोस्ते के फूल में बदल जाती है 

नदी सो रही है 
उसे सोने दो
उसके सोने से
दुनिया के होने का अन्दाज मिल रहा है 

पूछो 
चाहे जितनी बातर पूछना पड़े
चाहे पूछने में जितनी तकलीफ हो 
मगर पूछो
पूछो कि गाड़ी अभी कितनी लेट है !

पानी एक रोशनी है 
अंधेरे में यही एक बात है
जो तुम पूरे विश्वास के साथ
कह सकते हो दूसरे से। 

*****

मुक्ति 

मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला
मैं लिखने बैठ गया हूं

मैं लिखना चाहता हूं ‘पेड़‘
यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है 
मैं लिखना चाहता हूं ‘पानी‘

‘आदमी‘ ‘आदमी‘ - मैं लिखना चाहता हूं 
एक बच्चे का हाथ 
एक स्त्री का चेहरा 

मैं पूरी ताकत के साथ 
शब्दों को फेंकना चाहता हूं आदमी की तरफ 
यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा
मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूं वह धमाका
जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है 

यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूं। 

साभार: केदारनाथ सिंह की प्रतिनिधि कविताएं।

Saturday, September 24, 2011

फादर फोरगेट्स


डाकिए की ओर से: पिता पुत्र का रिश्ता बड़ा गर्वीला होता है। पुरूषत्व की गंध उसी में से आती है। एक गीत है - प्यार के लिए चार पल कम नहीं थे, कभी हम नहीं थे कभी तुम नहीं थे। उपस्थित रहिए। हमेशा। क्योंकि मैं नहीं रहता, और जब जो नहीं रहता वो रहने का महत्व जानता है बस। ज़मीन की अहमियत और अर्थ फलस्तीन सऔर शरणार्थीयों से पूछिए। रोटी का मतलब भूखों से। और बेछत वालों से पूछिए छत का मतलब? यकीनन उसका जवाब ज्यादा मौलिक, सच और अनुभूतियों में डूबा मिलेगा।

*****

फादर फोरगेट्स उन छोटे लेखों में से एक है -- जो गहन अनुभूति के किसी क्षण में लिखे जाते हैं -- जो पाठकों के दिल को छू जाते हैं। यह लेख लगातार पुनर्प्रकाशित हो रहा है। यह लेख हज़ारों पत्रिकाओं और अखबारों में छप चुका है। इसे कई विदेशी भाषाओं में भी उतनी ही लोकप्रियता मिली है और उनमें भी यह लेख बहुत ज्यादा बार छपा है। हैरानी की बात है कि काॅलेज की पत्रिकाओं और हाई स्कूल की पत्रिकाओं में भी यह लेख छपा। कई बार एक छोटा सा लेख रहस्यमयी कारणों से क्लिक हो जाता है।

फादर फोरगेट्स

सुनो बेटे ! मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं। तुम गहरी नींद में सो रहे हो। तुम्हारा नन्हा सा हाथ तुम्हारे नाजुक गाल के नीचे दबा है। और तुम्हारे पसीना-पसीना ललाट पर घुंघराले बाल बिखरे हुए हैं। मैं तुम्हारे कमरे में चुपके से दाखिल हुआ हूं, अकेला। अभी कुछ मिनट पहले जब मैं लायब्रेरी में अखबार पढ़ रहा था, तो मुझे बहुत पश्चाताप हुआ। इसीलिए तो आधी रात को मैं तुम्हारे पास खड़ा हूं, किसी अपराधी की तरह।

जिन बातों के बारे में मैं सोच रहा था, वह ये हैं बेटे। मैं आज तुम पर बहुत नाराज़ हुआ। जब तुम स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहे थे, तब मैंने तुम्हें खूब डांटा... तुमने टाॅवेल के बज़ाय पर्दे से हाथ पोंछ लिए थे। तुम्हारे जूते गंदे थे, इस बात पर भी मैंने तुम्हें कोसा। तुमने फर्श पर इधर उधर चीजें फेंक रखी थी... इस पर मैंने तुम्हें भला बुरा कहा। 

नाश्ता करते वकत भी मैं तुम्हारी एक के बाद एक गलतियां निकालता रहा। तुमने डाइनिंग टेबल पर खाना बिखरा दिया था। खाते समय तुम्हारे मुंह से चपड़-चपड़ की आवाज़ आ रही थी। मेज़ पर तुमने कोहनियां भी टिका रखी थीं। तुमने ब्रेड पर बहुत सारा मख्खन भी चुपड़ लिया था। यही नहीं जब मैं आॅफिस जा रहा था और तुम खेलने जा रहे थे और तुमने मुड़कर हाथ हिलाकर बाय बाय, डैडी कहा था, तब भी मैंने भृकुटी तानकर टोका था, अपनी काॅलर ठीक करो।

शाम को भी मैंने यही सब किया। आॅफिस से लौटकर मैंने देखा कि तुम दोस्तों के साथ मिट्टी में खेल रहे थे। तुम्हारे कपड़े गंदे थे, तुम्हारे मोजों में छेद हो गए थे। मैं तुम्हें पकड़कर ले गया और तुम्हारे दोस्तों के सामने तुम्हें अपमानित किया । मोज़े महंगे हैं जब तुम्हें खरीदने पड़ेगे तब तुम्हें इनकी कीमत समझ में आएगी। ज़रा सोचो तो सही, एक पिता अपने बेटे का इससे ज्यादा दिल किस तरह दुखा सकता है ?

क्या तुम्हें याद है जब मैं लाइबे्ररी में पढ़ रहा था तब तुम रात को मेरे कमरे में आए थे, किसी सहमें हुए मृगछौने की तरह। तुम्हारी आंखें बता रही थीं कि तुम्हें कितनी चोट पहुंची है। और मैंने अखबार के ऊपर से देखते हुए पढ़ने में बाधा डालने के लिए तुम्हें झिड़क दिया था कभी तो चैन से रहने दिया करो। अब क्या बात है ? और तुम दरवाज़े पर ही ठिठक गए थे। 

तुमने कुछ नहीं कहा। तुम बस भागकर आए, मेरे गले में बांहें डालकर मुझे चूमा और गुडनाइट करके चले गए। तुम्हारी नन्ही बांहों की जकड़न बता रही थी कि तुम्हारे दिल में ईश्वर ने प्रेम का ऐसा फूल खिलाया था जो इतनी उपेक्षा के बाद भी नहीं मुरझाया। और फिर तुम सीढि़यों पर खट खट करके चढ़ गए। 

तो बेटे, इस घटना के कुछ ही देर बाद मेरे हाथों से अखबार छूट गया और मुझे बहुत ग्लानि हुई। यह क्या होता जा रहा है मुझे ? गलतियां ढूंढ़ने की, डांटने-डपटने की आदत सी पड़ती जा रही है मुझे। अपने बच्चे के बचपने का मैं यह पुरस्कार दे रहा हूं। ऐसा नहीं है बेटे, कि मैं तुम्हें प्यार नहीं करता, पर मैं एक बच्चे से जरूरत से ज्यादा उम्मीदें लगा बैठा था। मैं तुम्हारे व्यवहार को अपनी उम्र के तराजू पर तौल रहा था। 

तुम इतने प्यारे हो, इतने अच्छे और सच्चे। तुम्हारा नन्हा सा दिल इतना बड़ा है जैसे चैड़ी पहाडि़यों के पीछे से उगती सुबह। तुम्हारा बड़प्पन इसी बात से साबित होता है कि दिन भर डांटते रहने वाले पापा को भी तुम रात को गुडनाइट किस देने आए। आज की रात और कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है, बेटे। मैं अंधेरे में तुम्हारे सिरहाने आया हूं और मैं यहां घुटने टिकाए बैठा हूं, शर्मिंदा। 

यह एक कमज़ोर पश्चाताप हैं। मैं जानता हूं कि अगर मैं तुम्हें जगाकर यह सब कहूंगा, तो शायद तुम नहीं समझोगे। पर कल से मैं सचमुच तुम्हारा प्यारा पापा बनकर दिखाऊंगा। मैं तुम्हारे साथ खेलूंगा, तुम्हारी मज़ेदार बातें मन लगाकर सुनूंगा, तुम्हारे साथ खुलकर हंसूंगा और तुम्हारी तकलीफों को बाॅंटूंगा। आगे से जब भी मैं तुम्हें डांटने के लिए मुंह खोलूंगा, तो इसके पहले अपनी जीभ को अपने दांतों में दबा लूंगा। मैं बार बार किसी मंत्र की तरह यह कहना सीखूंगा , वह तो अभी छोटा बच्चा है.... छोटा बच्चा।

मुझे अफसोस है कि मैंने तुम्हें बच्चा नहीं, बड़ा मान लिया था। परंतु आज जब मैं तुम्हें गुड़ी-मुड़ी और थका-थका पलंग पर सोया देख रहा हूं, बेटे, तो मुझे एहसास होता है कि तुम अभी बच्चे ही तो हो। कल तक तुम अपनी मां की बांहों में थे, उसके कांधे पर सिर रखे। मैंने तुमसे कितनी ज्यादा उम्मीदें की थीं, कितनी ज्यादा!

----- डब्ल्यू. लिविंग्स्टन लारनेड

साभार: लोक व्यवहार, डेल कारनेगी


डाकिए की ओर से: नज़र के तीर बड़े चुभते हैं। आप आगे बढ़ जाते हैं और वो कातरता पीठ पर खंज़र मानिंद गड़ी हुई मालूम होती है। कुछ ऐसा ही होता हुआ यहां

Wednesday, September 21, 2011

लव लेटर्स...



डाकिए की ओर सेः        प्रेम पत्रों की अपनी एक अलग दुनिया है। यह घोर निजता है। नितांत अकेले में सिर्फ प्रेमी या प्रेमिका की चहलकदमी में उपजा ख्याल है। प्रेम पत्र यदि तफसील से लिखी गई हो और यदि उसे गौर से पढ़ा जाए उस वक्त का देशकाल उजागर होता है। यह ऐतिहासिक दस्तावेज़ हो सकता है। अब यदि एक रिक्शेवाला प्यार में खत लिखता है तो बेकरारी के साथ साथ मिलन में आने वाली बाधाओं का जिक्र मिलता है, समाज की टेढ़ी नज़र, चाहे अनचाहे लोगों की सोच का पता चलता है। सबमें भावनाएं समान हैं बस फर्क है अंदाज़-ए-बयां का, विचार का। दिक्कत यह है कि हम निजी स्तर पर तो सबका खत पढ़ना चाहते हैं पर सार्वजनिक रूप से विश्वप्रसिद्ध हस्ती का। नेहरू का लार्ड माउंटबेटन की पत्नी एडविना को लिखे प्रेम पत्र आज काॅलेज पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं। ज़ाहिर है अप्रत्यक्ष रूप से यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ बन जाती हैं जो तत्कालीन इतिहास और समाज को थोड़ा और स्पष्ट कर विभिन्न शोधकार्यों में सहायक हो जाती हैं। यहां भी कुछ ऐसे ही अंश दिए जा रहे हैं। 

आभार एक स्त्री पत्रिका बिंदिया का जिसके फरवरी अंक में यह अंश मिला। इसे जूम करके पढ़ा और सेव ऐज कर सहेजा जा सकता है।



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Friday, August 19, 2011

अफसानानिगार और जिंसी मसाइल-2




       जब किसी अच्छे खानदान की जवान, सेहतमंद और खूबसूरत लड़की किसी मरियल, बदसूरत और कलाश लड़के के साथ भाग जाती है तो हम उसे मलऊन करार नहीं देंगे। दूसरे उस लड़की को माज़ी, हाल और मुस्तकबिल अखलाक की फांसी में लटका देंगे लेकिन हम वह छोटी सी गिरह खोलने की कोशिश करेंगे जिसने उस लड़की के इद्राक को बेहिस किया।

इंसान एक दूसरे से कोई ज्यादा मुख्तलिफ नहीं है। जो गलती एक मर्द करता है, दूसरा भी कर सकता है। जब एक औरत बाज़ार में दूकान लगाकर अपना जिस्म बेच सकती है तो दुनिया की सब औरतें ऐसा कर सकती हैं। गलतकार इंसान नहीं, वह हालता हैं जिनकी खेतों में इंसान अपनी गलतियां पैदा करता है और उनकी फस्लें काटता है। 

ज्यादातर जिंसी मसाइल ही आज के नए अदीबों की तवज्जोह का मर्कज़ क्यों बने हैं, इसका जवाब मालूम करना कोई ज्यादा मुश्किल काम नहीं। यह ज़माना अजीबो-गरीब किस्म के अज्दाद का ज़माना है। औरत करीब भी है, दूर भी। कहीं मादरज़ाद बरहनंगी नज़र आती है, कहीं सिर से लेकर पैर तक सत्र। कहीं औरत मर्द के भेस में दिखाई देती है, कहीं मर्द औरत के भेस में।

दुनिया एक बहुत बड़ी करवट ले रही है। हिंदुस्तान भी, जहां आज़ादी का नन्हा मुन्ना बच्चा गुलामी के दामन से अपने आंसू पोंछ रहा है, मिट्टी का नया घरौंदा बनाने के लिए जि़द कर रहा है - मशरिकी तहज़ीब की चोली के बंद कभी खोले जाते हैं, कभी बंद किए जाते हैं मगरिबी तहजीब के चेहरे का ग़ाज़ा कभी हटाया जाता है, कभी लगाया जाता है। एक अफरातफरी सी मची है - नए खटबुने पुरानी खाटों की मूंज उधेड़ रहे हैं। कोई कहता है इसे जिंदा रहने दो। कोई कहता इसे, नहीं इसे फना कर दो। इस धांधली में, इस शोरिश में हम नए लिखने वाले अपने कलम संभाले कभी इस मसले से टकराते हैं, कभी उस मसले से। 

अगर हमारी तहरीरों में औरत और मर्द के ताल्लुकात का जिक्र आपको ज्यादा नज़र आए तो यह एक फितरी बात है - मुल्क, मुल्क से सियासी तौर पर जुदा किए जा सकते हैं। एक मजहब दूसरे मजहब से अकीदों की बिना पर अलहदा किया जा सकता है। दो ज़मीनों को एक कानून एक दूसरे से बेगाना कर सकता है लेकिन कोई सियासत, कोई अकीदा, कोई कानून औरत मर्द को एक दूसरे से दूर नहीं कर सकता। 

औरत और मर्द में जो फासला है, उसको उबूर करने की कोशिश हर ज़माने में होती रहेगी। औरत और मर्द में जो एक लरज़ती हुई दीवार हाइल है, उसे संभालने और गिराने की सई हर सदी, हर कर्न में होती रही है, जो उसे उरियानी समझते हैं, उन्हें अपने एहसास के नंग पर अफसोस होना चाहिए। जो उसे अखलाक की कसौटी पर परखते हैं, उन्हें मालूम होना चाहिए कि अखलाक जंग है जो समाज के उस्तरे पर बेएहतियाती से जम गया है। 

जो समझते हैं कि नए अदब ने जिंसी मसाइल पैदा किए हैं, गलती पर हैं क्योंकि हकीकत यह है कि जिंसी मसाइल ने इस नए अदब को पैदा किया है, यह नया अदब जिसमें आप कभी कभी अपना ही अक्स देखते हैं और झंुझला उठते हैं - हकीकत ख्वाह शक्कर ही में लपेटकर पेश की जाए, उसकी कड़वाहट दूर नहीं होगी। 

हमारी तहरीरें आपकी कड़वी और कसैली लगती हैं मगर अब तक जो मिठासें आपको पेश की जाती रहीं हैं, उनसे इंसानियत को क्या फाइदा हुआ है ? नीम के पत्ते कड़वे सही मगर खून जरूर साफ करते हैं। 
- सआदत हसन मंटो

Thursday, August 18, 2011

अफसानानिगार और जिंसी मसाइल-1


डाकिए की ओर से: चार लम्हा फुर्सत का मिला है, इससे गुरेज नहीं। ये डाकिए का काम भी बड़ा जिम्मेदारी का होता है। आपको क्या पढ़ने को दूं यही सबसे बड़ा सवाल है। अच्छा पढ़ना आपके पहंुच में हैं तो क्यों ना थोड़ी दिमाग मांज लें। बस यही सोचकर... आज की चिठ्ठी। दो भागों में दे रहा हूं। मंटो ने यह निबंध अफसानानिगार और जिंसी मसाइल के नाम से लिखा है। जब उस पर कई मुकदमे चलाकर उसे बुरी तरह परेशान किया गया। आईए पढ़ें उसका बयानः

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मलिक बिल्ंिडग, मेव रोड,
लाहौर।

भाईजान, सलामे-शौक !
ब्रादरम आगा खलिश साहिब का गिरामीनामा परसों मिला था। आपकी अलालत का इल्म हुआ। अल्लाह करे, आप सब अच्छे हों। जब आपको अपनी सेहत का अंदाज़ा है तो इतना काम क्यों करते हैं कि इन दिनों साहिबे-फराश रहते हैं। मुझे लौटती डाक में आनी सेहत की हालत से मुत्तला कीजिए और लिल्लाह इतनी मेहनत न कीजिए कि आप इंजेक्शनों के कांटों में घिरे रह जाएं। अभी बरसों तक आपकी जरूरत है। 

लीजिए ‘खैमाम‘, ‘आईना‘ और दीगर मेहरबानों के दम से अदबे लतीफ का सालनामा जेरे दफा 292 ताज़ीराते हिंद और 38 डिफेंस आॅफ इंडिया रूल्ज़, 29 मार्च की शाम को जब्त हो गया। पुलिस ने छापा मारा और सालनामें के बाकी मांदा नंबर ले गई। अभी प्रोपराइटर और एडिटरों की गिरफ्तारी अमल में नहीं आई लेकिन अफवाह है कि हम बहुत जल्द गिरफ्तार कर लिए जाएंगे। यह जब्ती आपके मज़मून और अफसाने की वजह से अमल में आई है। 

अहमद नदीम कासमी
एडिटर अदले-लतीफ 

कोई हकीर से हकीर चीज़ ही क्यों नहो, मसाइल पैदा करने का बायस हो सकती है। मसहरी के अंदर एक मच्छर घुस आए तो उसको बाहर निकालने, मारने और आइंदा के लिए दूसरे मच्छरों की रोकथाम करने के मसाइल पैदा हो जाते हैं लेकिन दुनिया का सबसे बड़ा मसला यानी तमाम मसलों का बाप उस वक्त पैदा हुआ था, अब आदम में भूख महसूस की थी और उससे छोटा मगर दिलचस्प मसला उस वक्त परदा-ए-जहूर पर आया था, जब दुनिया के उस सबसे पहले मर्द की दुनिया की सबसे पहली औरत से मुलाकात हुई थी। 

यह दोनों मसले जैसा कि आप जानते हैं, दो मुख्तलिफ किस्म की भूखें हैं जिनका आपस में बहुत गहरा ताल्लुक है - यही वजह है कि हमें इस वक्त जितने मआशरती, मजलिसी, सियासी और जंगी मसाइल नज़र आते हैं, उनके अकब में यही दो भूखें जलवागर हैं। 

मौजूदा जंग की खूनीं पर्दा अगर उठा दिया जाए तो लाशों के अंबार के पीछे आपको मुल्कगीरी की भूख के सिवा और कुछ नज़र नहीं आएगा।

भूख किसी भी किस्म की हो खतरनाक होती है। आजादी के भूखों को अगर गुलामी की जंजीरें ही पेश की जाती रही तो इन्किलाब जरूर बरपा होगा। रोटी के भूखे अगर फाके ही खींचते रहे तो वह तंग आकर दूसरे का निवाला जरूरी छीनेंगे। मर्द की नज़रों से अगर औरत की दीदार का भूखा रखा गया तो शायद वह अपने हमजिंसों और हैवानों ही में इसका अक्स देखने की कोशिश करे। 

दुनिया में जितनी लानतें हैं, भूख उनकी मां है - भूख गदागरी सिखाती है, भूख जराइम की तरगीब देती है, भूख इस्मत फरोशी पर मजबूर करती है, भूख इंतिहापसंदी का सबक देती है। इनका हमला बहुत शदीद, इसका वार बहुत भरपूर और इसका ज़ख्यम बहुत गहरा होता है। भूख दीवाने पैदा करती है, दीवानगी भूख पैदा नहीं करती। 

दुनिया के किसी कोने का मुसन्निफ हो, तरक्कीपसंद हो या तनज़्ज़ुलपसंद, बूढ़ा हो या जवान, उसके पेशे नज़र दुनिया के तमाम बिखरे हुए मसाइल रहते हैं। चुन-चुनकर वह उन पर लिखता रहता है। कभी किसी के हक़ में कभी किसी के खिलाफ। 

आज का अदीब बुनियादी तौर पर आज से पांच सौ साल पहले के अदीब से कोई ज्यादा मुख्तलिफ नहीं। हर चीज़ पर नए पुराने का लेबिल वक्त लगाता है, इंसान नहीं लगाता। हम आज नए अदीब कहलाते हैं। आने वाली कल हमें पुराना करके अल्मारियों में बंद कर देगी लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हम बेकार जिए, हमने मुफ्त में मग़ज़दर्दी की। घड़ी की सुई जब एक से गुज़र कर दो की तरफ रेंगती है तो एक का हिंदसा मेमसरफ नहीं हो जाता। पूरा सफर तय करके सुई फिर इसी हिंदसे की तरफ लौटती है - यह घड़ी का भी उसूल है और दुनिया का भी। 

आज के नए मसाइल भी गुजरी हुई कल के पुराने मसाइल हैं बुनियादी तौर पर मुख्तलिफ नहीं। जो आज की बुराईयां हैं, गुज़री हुई कल ही ने उनके बीज बोए थे। 

जिंसी मसाइल जिस तरह आज के नए अदीबों के पेशे नज़र हैं, उसी तरह पुराने अदीबों के पेशे नज़र भी थे। उन्होंने उन पर अपने रंग में लिखा, हम आज अपने रंग में लिख रहे हैं।

मुझे मालूम नहीं, मुझसे जिंसी मसाइल के मुताल्लिक बार बार क्यों पूछा जाता है। शायद इसलिए कि लोग मुझे तरक्कीपसंद कहते हैं, या शायद इसलिए कि मेरे चंद अफसाने जिंसी मसाइल के मुताल्लिक हैं या फिर इसलिए कि आज के नए अदीबों को बाज़ हज़रात जिंसज़दा करार देकर उन्हें अदब, मज़हब और समाज से यक कलम खारिज कर देना चाहते हैं। वजह कुछ भी हो मैं अपना नुक्ता ए नज़र पेश कर देता हूं:

रोटी और पेट, औरत और मर्द - यह दो बहुत पुराने रिश्ते हैं, अज़ली और अबदी। रोटी ज्यादा अहम है या पेट ? औरत ज्यादा जरूरी है या मर्द ? मैं इसके मुताल्लिक कुछ नहीं कह सकता, इसलिए कि मेरा पेट रोटी मांगता है लेकिन मुझे यह मालूम नहीं कि गेहूं भ्ीा मेरे पेट के लिए उतना ही तरसता है जितना की मेरा पेट। फिर भी जब मैं सोचता हूं कि ज़मीन ने गेहूं के खोशों को बेकार जन्म नहीं दिया होगा तो मुझे खुशफहमी होती है कि मेरे पेट ही के लिए वसी ओ अरीज़ खेतों में सुनहरी बालियां झूमती हैं और फिर हो सकता है कि मेरा पेट पहले पैदा हुआ हो और गेहूं की यह बुच्चियां कुछ देर बाद।

कुछ भी हो, यह बात रोज़े-रोशन की तरह अयां है कि दुनिया का अदब सिर्फ इन दो रिश्तों से ही मुताल्लिक है -इल्हामी किताबें भी जिनको आसमानी अदब कहना चाहिए, रोटी और पेट, औरत और मर्द के जज्किरों से खाली नहीं। 
सवाल पैदा होता है कि जब यह मसाइल इतने पुराने हैं कि इनका जि़क्र इल्हामी किताबों में भी आ चुका है कि तो फिर क्यों आज के अदीब इन पर खामा फरसाई करते हैं। क्यों औरत और मर्द के ताल्लुकात को बार बार कुरेदा जाता है और बकौल शख्से उरियानी फैलाई जाती है - जवाब इस सवाल का यह है कि अगर एक ही बार, झूठ न बोलते और चोरी न करने की तलकीन करने पर सारी दुनिया झूठ और चोरी से परहेज करती तो शायद एक ही पैगंबर काफी होता - लेकिन जैसा आप जानते हैं, पैगंबरों की फेहरिस्त खासी लंबी है। 

हम लिखने वाले पैगंबर नहीं। हम एक ही चीज को, एक ही मसले को मुख्तफिल हालात में मुख्तलिु जावियों में देखते हैं और जो कुछ हमारी समझ में आता है दुनिया के सामने पेश कर देते हैं और दुनिया को कभी मजबूर नहीं करते कि वह उसे कबूल ही करे। 

हम कानूनसाज नहीं, मुहतसिब भी नहीं। एहतिसाब और कानूनसाजी दूसरों का काम है -हम हुकूमतों पर नुकताचीनी करते हैं लेकिन खुद हाकिम नहीं बनते। हम इमारतों के नक्शे बनाते हैं लेकिन हम मैमार नहीं। हम मजऱ् बताते हैं लेकिन दवाखानों के मुहतमिम नहीं। 

हम जिंसियात पर नहीं लिखते। जो समझते हैं कि हम ऐसा करते हैं, यह उनकी गलती है। हम अपने अफसानों में खास औरतों और खास मर्दों के हालात पर रोशनी डालते हैं किसी अफसाने की हिरोइन से अगर उसका मर्द सिर्फ इसलिए मुतनफ्फिर हो जाता है कि वह सफेद कपड़े पसंद करती है या सादगी पसंद है तो दूसरी औरत को इसे उसूल नहीं समझ लेना चाहिए। यह नफरत क्यों पैदा हुई और किन हालात में पैदा हुई इस इस्तिफ्हाम का जवाब आपको हमारे अफसाने में जरूर मिल जाएगा। 

जो लोग हमारे अफसानों में लज्जत हासिल करने के तरीके देखना चाहते हैं, उन्हें यकीनन नाउम्मीदी होगी। हम दांव पेंच बताने वाले खलीफे नहीं। हम जब अखाड़े में किसी को गिरता देखने हैं तो अपनी समझ के मुताबिक आपको समझाने की कोशिश करते हैं कि वह क्यों गिरा था ?

हम रजाई हैं। दुनिया की सियाहियों में भी हम उजाले की लकीरें देख लेते हैं। हम किसी को हिकारत की नज़र से नहीं देखते। चकलों में जब कोई टखयाई अपने कोठे पर से किसी राहगुज़र पर पान की पीक थूकती है तो हम दूसरे तमाशाईयों की तरह न तो कभी उस पर हंसते हैं और न कभी उस टखयाई को गालियां देते हैं। हम यह वाका देख रूक जाएंगे। हमारी निगाहें इस गलीज़ पेशेवर औरत के नीम उरियां लिबास को चीरती हुई उसके सियाह इस्यां भरे जिस्म के अंदर दाखिल होकर उसके दिल पर पहुंच जाएंगी, उसको टटोलेंगी और टटोलते-टटोलते हम खुद कुछ अर्से के लिए तसव्वुर में वही करीह और मुतअफ्फिन रंडी बन जाएंगे, सिर्फ इसलिए कि हम उस वाके की तसवीर ही नहीं बल्कि उसे असल मुहर्रिक की वजह भी पेश कर सकें। 

(ज़ारी...)

Friday, July 22, 2011

जैसे में मिसफिट हूँ दुनियाँ के लिए.

अपने लिए लिखा बड़ा बेतरतीब होता है. और अनएडिटेड डाल रहा हूँ. क्या डाकिये को ख़त लिखने का हक़ नहीं.
हाँ पर ख़त के ख़त्म हो जाने पर मुझे डाकिया ही समझना. बस ये ज़रूर कहूँगा...
देके ख़त मुंह देखता है नामावर,
कुछ तो पैग़ाम-ए-ज़बानी और है



क्या कभी ऐसा हो सकता है कि कोई ग़म ना हो?
हुआ तो नहीं...
भविष्य में कभी ?
लगता तो नहीं...
तो इस वक्त के लिए इतना काफी नहीं खुश रहने के लिए?

अधूरे ग़म सबसे ज़्यादा परेशान करते हैं. ग़मों में डूबे रहना कहीं बेहतर है उससे.
...तो कई बार ऐसा हुआ है परेशान होने कि स्थितयों में और परेशानिया मोल लीं हैं.
१)अबरू की कटारी को दो आब और ज़्यादा.
२)संता बंता का वो चुटकुला जिसमें आप पसीना सुखाने को धूप में खड़े होते हो.
३)छोड़ी गयी पत्नी के बार बार पति के पैरों में नाक रगड़ने की तरह.
४) आत्महत्या का विचार टाल देने की तरह.

मैं उन स्थितियों से गुज़रा हूँ, जहाँ पर मैं दौड़ में पीछे, बहुत पीछे छूट जाने की दशा में भी प्रथम तीन में अपना स्थान बनाने की सामर्थ्य रखता था. कम से कम मैं तो यही समझता था. और यही अति-आत्मविश्वास, अल्प- आत्मविश्वास बन गया. कपूर के गलनांक और वाष्पांक एक होने की तरह प्योर-आत्मविश्वास की स्थिति आई ही नहीं कभी. और मैं जीत जाऊँगा सोचते सोचते मैं हारता रहा (हारता गया नहीं. )
पर हर हार....
..ख़ुशी नहीं कहूँगा पर वो देती रही जिसकी मुझे जिन्दा रहने के लिए निहायत ज़रूरत थी. यकीन कीजिये आपको किसी चीज़ की ताउम्र ज़रूरत होती है, लेकिन वो क्या चीज़ है आपको पता नहीं होता. और ये वो चीज़ तो यक़ीनन नहीं ही है जो आपको पता है. (शायद ऐसा पहले भी किसी ने कहा हो. पर अभी मैं उससे प्रभावित होकर नहीं कह रहा हूँ.)
बहरहाल तसल्ली की बात ये है कि ना चाहते हुए भी आपको एक दिन मर जाना है, आप सब चीज़ जानते हो, चीज़ों के गुज़र जाने को तठस्थ होकर देखते हो, मानो गीता के 'निष्काम कर्म' को हृदयस्थ कर लिया हो.
पर फ़िर...
उसके गुज़र जाने पर...
..आप फफ़क फफ़क कर रोते हो. ऐसे कि दोनों होठों के बीचे मैं लार की पतली पतली रेखाएं बनती बिगडती हों. इंजॉय !
...बस यही तो आप चाहते हो. मैं स्त्री मनोविज्ञान को तो फ़िर भी समझता हूँ (ओवर कौनफिड्न्स जो कपूर की तरह है पर अभी दिल के ख़ुश रखने को... कम से कम तुम्हारे होने तक...) पर दुःख के मनोविज्ञान को नहीं समझ पाया हूँ. ना ना ! यकीन करो बेशक जब दुःख के मज़े लेने शुरू किये थे, तब ये सब सोचता था, अब तो इन सब से ऊपर उठ चुका हूँ, इस सेल्फ पिटी से...
कुछ इस तरह क्रमिक विकास हुआ है चीज़ों का...
सिगरेट >> शराब >> सेल्फ पिटी >> तन्हाईयाँ >> आत्महत्या की चाह >> जीना और बस जीना

..अब तो बस...

ख़ैर ये सब कोई आध्यात्मिक ज्ञान की सीढियां नहीं रहें हैं मेरे लिए. अगर कुछ है तो जस्ट अपोजिट है. ब्लैक होल का काउन्टर-पार्ट वार्म होल सरीखा अवश्यम्भावी (उदाहरण की नकारात्मकता और सकारात्मकता से मायने नहीं हैं, बस ब्लैक होल ज़्यादा प्रचलित है इसलिए) मेरी पूजा में हवन और अगरबत्ती की खुश्बू नहीं आती. उसमें शमशान, चमगादड़, नर कंकाल और अमावस्या की बातें हैं.
गुर्जिएफ़ की तरह मेरा भी ख्याल है कि आप जिस रास्ते जा रहे हो ज़रूरी नहीं की वो सही हो पर आपको इसका पता कभी नहीं लगेगा, क्यूंकि जो इस राते से गुज़रे वो तो गुज़र गए. तो इसलिए मुझे आपके रास्ते पर यकीन नहीं हो आता...
और रास्ता तो वैसे भी द्वि-आयामी होगा...
यकीं तो मुझे इस बात पर भी नहीं है ख़ैर....
जिस दिन मुझे पता चल जाएगा कि मुझे क्या चाहिए ? उस दिन मैं वाकई दुखी हो जाऊँगा. और ये होगी दुखों कि पूर्ण समाधी,
परम दुःख.

कुछ ऐसा जो कुंडली जागृत करने के ठीक विपरीत होगा. सब कुछ सुला देना. पर वो मौत नहीं होगी.
हँसी आ रही सोच कर कि 'नथिंग इज़ परफेक्ट.'
दोस्तों यकीन रखो ज़िन्दगी एक ही है. मैं चीज़ों को प्रभावित कर सकता हूँ पर मैं चीज़ नहीं हो सकता. मेरे होने तक और मेरे होने से ही आप, फूल, पत्ते, कम्प्यूटर, और लास्ट बट नॉट लीस्ट ये ग़म हैं. आप सब मेरे लिये एक सपने का हिस्सा हैं और अगर आप लोग वाकई में हैं (जो मैं नहीं मानता) तो आप लोगों के लिए भी यही लागू होता है. बड़ी मतलबी से बात है ये पर मैं इसमें चाह कर भी झूठ नहीं ढूंढ पाया. मतलबी पर इमोशनली हौन्टिंग. ग़ालिब ने बेशक ये बात पहले भी कही है पर में उससे कम से कम इस वक्त तो प्रभावित हुए बिना उए बात कह रहा हों.हाँ अगर वो नहीं होता तो मुझे शब्द ढूँढने पड़ते...
...डुबोया मुझको होने ने.
ये सब कह चुकने के बाद भी चैन नहीं आ रहा. नींद आ रही है पर चैन नहीं. किसी की लिखी हुई बात कई दिनों से ज़ेहन में है...
...बात नहीं एक शब्द.
'मिसफिट'
'जैसे में मिसफिट हूँ दुनियाँ के लिए.'
...तब जबकि ये दुनियाँ मेरे होने पर ही है. कम से कम मुझ इंडीविज़ुअल के लिए तो तब तक ही है. में आपके बारे में निश्चित नहीं हूँ."








Saturday, July 16, 2011

अदब या तो अदब है, वर्ना बहुत बड़ी बेअदबी



डाकिए की ओर से: दिल्ली, बारिश और शनिवार... कुनैन की गोलियां। अफीम की आदत। कड़वाहट चबाने का लत गोया इससे निकला रस मीठा होता है। बेर खाने के बाद का पानी पीना जैसे। 

ऐसे में गालिबन मंटो। कहते हैं मंटो बड़ा जटिल इंसान था। लेकिन उसे पढते हैं तो लगता है वो बहुत सीधा था। एक बच्चे जितना मासूम और सीधा लेकिन हम उसका यह सीधापन झेल नहीं सके तो साजिश के तहत उसे काॅम्पलेक्स करार दे दिए।

मंटो के मजामीन हाथ लगे हैं। दस्तावेज का चौथा हिस्सा जिसमें मुदकमे, पत्र और निबंध हैं और जिसकी शुरूआत कुछ यूं होती है -


जब कोई ईमानदान नागरिक रात को सो नहीं पाता 
जब कोई देशभक्त उदास हो जाता है
जब कोई काबिल जवान इम्प्लायमेंट एक्सचेंज की सीढि़यों पर दिन गुजारता है
जब कोई बुद्धिजीवी किसी कारण किसी का पिछलग्गू बन जाता है 
जब कोई लेखक इनाम और खिताब के मोह में दर दर भटकता है
जब कोई व्यक्ति अदालत के बरामदे में बचपन से बुढापे में पहंुच जाता है
जब कोई मरीज़ अस्पताल के दालान में बिस्तर लगाता है
जब कोई स्मगलर समाज में रूत्बा पाता है 
जब कोई मुलाजिम ताल्लुकात की सीढि़यां चढ़कर ऊपर पहंुचता है 
दोस्तों, 
तब सआदत हसन मंटो ये मज़ामीन लिखता है।

सच भी है, इस हिस्से में उन दिनों की दास्तां है जब लगातार मुकदमे से मंटो परेशां हो गया था। लिखने से ज्यादा उसे सफाई देनी पड़ रही थी। उसे सरोकार याद दिलवाए जा रहे थे और औकात बताई जा रही थी। हैरानी होती है जो कहानी में बेदर्दी से खाल उतारता था वो किस कदर हस्सास नज़र रखता था।

यहां पाठकों से रू ब रू होता मंटो। कुछ सवालों का जवाब देता हुआ...

(मेरी खुद की भूमिका लंबी हो गई। माफी)

*****

मेरे मज़मून का उनवान अदबे-जदीद है। लुत्फ की बात यह है कि मैं इसका मतलब ही नहीं समझता लेकिन यह जमाना ही कुछ ऐसा है कि लोग उसी चीज़ के मुताल्लिक बातें करते हैं जिनका मतलब उनकी समझ में नहीं आता। पिछले दिनों गांधी जी ने आगा खां के महल में मरन ब्रत रखा। जब लोगों की समझ में न आया कि वह किस तरह जिंदा रह सके हैं तो एक नारंगी पैदा कर दी गई। यह नारंगी भी कुछ दिनों बाद नाकाबिले फहम हो गई। बाज आदमियों ने कहा कि नारंगी नहीं थी, मौसंबी थी। बाज ने कहा: नहीं मौसंबी, नारंगी हर्गिज नहीं थी, माल्टा था। बात बढ़ती गई। फिर इसकी सारी जातें गिनवा दी गई। फिर डाक्टरों ने इनमें से हर एक की विटामिन गिनवाई। गिजाइयत को कैलोरीज में तकसीम किया गया। एक बरस में पिचहत्तर बरस के बुड्डे को कितनी कैलोरीज की जरूरत होती है, इस पर बहस की गई और साहिब, गांधी जी की यह नारंगी या मौसंबी जो कुछ भी थी, वह सआदत हसन मंटो बन गई। यह मेरा नाम हैं लेकिन बाज लोग अदबे-जदीद अलमारूफ नए अदब, यानी तरक्कीपसंद अदब को सआदत हसन मंटो भी कहते हैं और जिन्हें सिन्फे करख्त पसंद नहीं, वो उसे इस्मत चुगताई भी कह लेते हैं। 

जिस तरह मैं यानी सदादत हसन मंटो अपने आपको नहीं समझता, तरक्कीपसंद लिट्रेचर भी उन लोगों की समझ से भी ऊंचा है हो इसको समझने की कोशिश करते हैं।

मैं चीजों को नाम रखने को बुरा नहीं समझता। मेरा अपना नाम अगर न होता तो वो गालियां किसे दी जातीं जो अब तक हजारों और लाखों की तादाद में मैं अपने नक्कादों से वुसूल कर चुका हूं। नाम हो तो गालियां और शाबाशियां देने और लेने में बहुत सहूलत पैदा हो जाती है लेकिन अगर एक ही चीज के बहुत से नाम हों तो उलझाव पैदा होना जरूरी है।

सबसे बड़ा उलझाव इस तरक्कीपसंद अदब के बारे में पैदा हुआ है हालांकि पैदा नहीं होना चाहिए था - अदब या तो अदब है, वर्ना बहुत बड़ी बेअदबी। 

मैं दूसरों की तरफ से जवाब नहीं दूंगा। अपने मुताल्लिक अर्ज करना चाहता हूं कि दुनिया का नक्शा बदल रहा है लेकिन अगर मैंने उसके मुताल्लिक कुछ लिखा है तो मेरा भी हुलिया बदल जाएगा। डरपोक आदमी हूं, जेल से बहुत डर लगता है। यह जिदंगी जो बसर कर रहा हूं, जेल से कम तकलीफदेह नहीं है। अगर इस जेल के अंदर एक और जेल पैदा हो जाए और मुझे उसमें ठूंस दिया जाए तो चुटकियों में मेरा दम घुट जाएगा। जिंदगी से मुझे प्यार है। हरकत का दिलदादा हूं। चलते-फिरते सीने में गोली खा सकता हूं लेकिन जेल में खटमल की मौत नहीं मरना चाहता। यहां इस प्लेफार्म पर यह मज़मून सुनाते सुनाते आप सबसे मार खा लूंगा और उफ तक नहीं करूंगा लेकिन हिंदू मुस्लिम फसाद में अगर कोई मेरा सिर फोड़ दे तो मेरे खून की हर बूंद रोती रहेगी। मैं आर्टिस्ट हूं, ओछे ज़ख्म और भद्दे घाव मुझे पसंद नहीं। जंग के बारे में कुछ लिखूं और दिल में पिस्तौल देखने और छूने की हसरत दबाए किसी तंगो तारीक कोठरी में मर जाऊं, ऐसी मौत से तो यही बेहतर है कि लिखना विखना छोड़कर डेरी फार्म खोल लूं और पानी मिला दूध बेचना शुरू कर दूं। 

मुझे चुस्त वर्दी पहनने का शौक नहीं है। पीतल और तांबे के मतगों और कपड़े के रंगीन बिल्लों से मुझे कोई दिलचस्पी नहीं। होटलों में डांस करके, क्लबों में शराब पीकर और टैक्सियों में चूना-कत्था लगी लड़कियों के साथ घूमकर मैं वार ऐफर्ट की मदद नहीं करना चाहता। इससे कहीं ज्यादा दिलचस्प मशागिल मुझे मयस्सर हैं। मिसाल के तौर पर यह मश्ग़ला क्या बुरा है कि मैं हर रोज़ बंबई सैंट्रल से गोरेगांव और गोरेगांव से बंबई सैंट्रल तक बर्की ट्रेन में सैकड़ों वर्दीपोश फौजियों को देखता हूं जो फतह-ओ-नुसरत को ओर ज्यादा करीब लाने के लिए शराब के नशे में मदहोश या तो टांगे पसारे सो रहे होते हैं या निहायत ही बदनुमा औरतों से, मेरी मौजूदग से गाफिल, निहायत ही वाहियात किस्म का रोमांस लड़ाने में मसरूफ होते हैं। 

मैं इस जंग के बारे में कुछ नहीं लिखूंगा लेकिन जब मेरे हाथ में पिस्तौल होगा और दिल में यह धड़का नहीं रहेगा कि यह खुद ब खुद चल पड़ेगा तो मैं उसे लहराता हुआ बाहर निकल जाऊंगा और अपने असली दुश्मन को पहचानकर या तो सारी गोलियों उसके सीने में खाली कर दूंगा या खुद छलनी हो जाऊंगा। इस मौत पर जब मेरा कोई नक्काद यह कहेगा कि पागल था तो मेरी रूह इन लफ्जों ही को सबसे बड़ा तमगा समझकर उठा लेगी और अपने सीने पर आवेजां कर लेगी।

Monday, June 27, 2011

डायरी के पन्ने : आंद्रेई तारकोवस्की - 2


डाकिए की ओर से: एक नज़र में तारकोवस्की का हाल भी हमारे देश के महान फिल्मकार ऋत्विक घटक जैसा ही था। जब फिल्में बनाते सरकार विद्रोह या बकवास करार देकर प्रतिबंध लगाती। दोनों जगह यह साजिश थी। जैसे ऋत्विक घटक के जाने के बाद सिनेमा के छात्रों को उनकी बनाई फिल्में देखने को कहा जाता है। तारकोवस्की ने अपनी डायरी में मठाधीशों और सरकारी अधिकारियों को जमकर कोसा है। यहां यह सवाल भी उठता है कि देश में विषय वाइज विशेषज्ञ होना चाहिए अन्यथा इज्जत नहीं मिलती। उदाहरणार्थ हमारे यहां स्पोटर्स में खिलाडि़यों ज्यादा जानकार नेता होते हैं। देखिए चीजें कैसे लिंक्ड हो जाती हैं और कहां से कहां चली जाती हैं। 


*****

1973 
5 फरवरी
यूगोस्लाविया द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय समारोह में रूबल्योव को ग्रैंड प्राइज प्राप्त हुआ। 
नजायज़ मानी गई इस फिल्म रूबल्योव को यह चैथा अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है। 

17 जून,
रूबल्योव को स्वीडर में दिखाया जा रहा है, एंडरसन के बताए अनुसार बर्गमन ने कहा उन्होंने इतनी बढि़या फिल्म आज तक नहीं देखी। 

उसे पूरी तरह खोलना होगा, उससे सीधे सीधे भिड़ना होगा, उसकी तरफ दूर से नहीं आया जा सकेगा, छिलका निकाल फेंकना होगा, उसे अपने ही ढंग से पढ़ो, कलाकार के एकांत की ट्रेजेडी ही सर्वोपरि है और सत्य को समझने के लिए उसकी कीमत चुकाना भी।

1975 
3 जुलाई
कोई योजना कैसे परिपक्व होती है ?

निस्संदेह यह अत्यंत भेदभरी और अत्यंत दुग्र्राह्य प्रक्रिया है। हमारे बंधन से छुटी वह अचेतन में आज़ाद जारी रहती है, और तंतःकरण की दीवारों पर निश्चिमत रूप धारण करती है। फिर अंतःकरण का रूप ही उसे विलक्षण बनाता है, दरअसल सिर्फ अंतःकरण ही उसके उस बिंब की प्रच्छन्न गर्भावधि तय करता है जो सामान्य नज़रों से नहीं देखा जा सकता। 

1976
8 फरवरी 
मेरा पूरा यकीन है कि समय उत्क्रमणीय है, किसी भी हालत में वह सीधी रेखा में नहीं चलता। 

13 सितंबर
हम या तो एक दूसरे के गुणों को कम आंकते हैं या फिर बढ़ा चढ़ा कर बताते है। बहुत कम लोग दूसरों का आकलन उनकी योग्यता के आधार पर करने के काबिल होते हैं। यह कोई खास तरह की प्रतिभा होती है, सचमुच यहां तक कह सकता हूं कि केवल कुछ एक महान लोग ही इस योग्य होते हैं। 

1977
28 दिसंबर
कमज़ोरी महान चीज़ है, ताकत गौण है। जब मनुष्य जन्म लेता है त बवह कमज़ोर और कोमल होता है। जब मरता है तब मजबूत और कठोर होता है। 
जब एक पेड़ उगता है तब वह लचीला और मुलायम होता है, और जब वह सूख कर कड़क होता है तब मर जाता है। कठोरता और ताकत मृत्यु के सहचर हैं। 
नमनशीलता और कमज़ोरी ‘होने‘ की ताज़गी के निशान हैं। जो कड़ा हो गया वह कभी सफल नहीं होगा।  (लाओ-त्से)

1978
13 अप्रैल
वाकई... मैं दि मास्टर एंड मार्गारिता पर फिल्म क्यों नहीं बना रहा ? क्योंकि वह किसी प्रतिभाशाली लेखक का उन्यास है ? हालांकि, सवाल गद्य कैसा क्य है यह नहीं, विषयवस्तु का निरूपण कैसा और क्या है इसका नहीं नहीं, कथानक का नहीं, भाषा का भी नही !

मध्य-युग और नवजागरण की सारी चित्रकला की और संगीत कला की, अंततः एक ही, वही की वही, विषयवस्तु रही। द्यूरर, क्रोनेच, ब्रूघेल, बाख, हांदेल, लिओनार्दो, माइकलएंजेलो आदि सभी की...

इसमें आदिम स्त्रोतों को धंुधला करने जैसी कोई बात नहीं। यहां बात है दक्षता की, और वस्तु की, और फिर कलाकार ही उस्ताद है, क्योंकि उसे मालूम है किससे क्या बनाना है। 

*****

पुस्तक : अनंत में फैलते बिम्ब : तारकोवोस्की का सिनेमा
साभार : संवाद प्रकाशन, हिंदी अनुवाद.

पुनःश्च:- आज एस पी सिंह की पुण्यतिथि है। पत्रकारिता के इस पारखी पत्रकार को डाकिए का सलाम। कुछ आलेख यहां और एक यहाँ पढ़ा जा सकता है।
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