Monday, January 31, 2011

पसमंज़र


कत्बा

786

यहाँ सआदत हसन मंटो दफन है.
उसके सीने में फ़न्ने-अफ़सानानिगारी के
सारे अस्रारो-रूमूज़ दफ़्न हैं -
वह अब भी मनों मिट्टी के नीचे सोच रहा है 
कि वह बड़ा अफ़सानानिगार है या ख़ुदा। 

सआदत हसन मंटो 
18 अगस्त, 1954

पसमंज़र

आज की ताज़ा खबर आपने सुनी ?

कोरिया की ?

जी नहीं। 

बेगम जूनागढ़ की ?

जी नहीं। 

क़ल्तो-गारत की किसी नई वारदात की ?

जी नहीं... सआदत हसन मंटो की

क्यों ... ? मर गया ?

जी नहीं। कल गिरफ्तार कर लिया गया। 

फहाशी (अश्लील) के सिलसिले में ?

जी हां... पुलिस ने उसकी खाना-तलाशी भी ली। 

कोकीन या नाजाइज़ शराब वगैरह निकली ?

नहीं... अखबारों में लिखा था कि उसके मकान से कोई नाजाइज चीज़ बरामद नहीं हुई। 

लेकिन उसका वुजूद बज़ाते-खुद (अपने आप में) नाजाइज़ है।

जी हां... कम-अज-कम हुकूमत तो यही समझती है। 

फिर उसे बरामद क्यों न किया गया ?

यह बरामद और दरामद का मामला हुकूमत के अपने हाथों में है जिसे चाहे बरामद करे, जिसे चाहे दरामद करे ! सच पूछिए तो यह काम हुकूमतों ही के हाथों में होना चाहिए। वो इसका सलीका जानती हैं।

इसमें क्या शक है...। 

तो क्या खयाल है आपको... ? इस मर्तबा तो मंटो को फांसी की सज़ा जरूर मिलनी चाहिए...

मिल जाए तो अच्छा है। रोज़ का टंटा खत्म हो।

आपने ठीक कहा है। ‘ठंडा गोश्त‘ के बारे में हाई कोर्ट ने उसके खिलाफ जो फैसला दिया है, इसके बाद तो उस कमबख्त को खुद-ब-खुद मर जाना चाहिए था... मेरा मतलब है कि खुदकुशी कर लेनी चाहिए थी। 

अगर वह इस कोशिश में नाकाम रहता...

...तो उस पर यकीनन मुकदमा चलता कि उसने अपनी जान लेने की कोशिश की।

मेरा ख्याल है, यही वजह है कि वह खुदकुशी से बाज़ रहा। वगरना वह बाज़ रहने वाला आदमी नहीं। 
तो आपको मतलब है कि वह फहाशी जारी रखेगा ?

अजी हज़रत ! वह उस पर पांचवां मुकदमा है। अगर उसे बाज़ रहना होता तो पहले मुकदमे के बाद ही ताइब (तौबा करने वाला) होकर कोई शरीफाना काम शुरू कर देता। मिसाल के तौर पर गवर्नमेंट की मुलाज़िमत कर लेता या घी बेचता, या महल्ला पीर गीलानियां के गुलाम अहमद साहिब की तरह कोई दवा ईजार कर लेता। 

जी हां, ऐसे सैकड़ों शरीफाना काम हैं। मगर वह परले दर्जे का हठधर्म है। लिखेगा और जरूर लिखेगा। 

मालूम है आपको, इसका अंजाम क्या होगा ?

कुछ बुरा ही नज़र आता है। 

छः मुकदमे पर पर पंजाब में चल रहे होंगे, दस सिंध में, चार सूबा सरहद में, तीन मशरिकी पाकिस्तान में... वह इनकी ताब न लाकर पागल हो जाएगा। 

दो मर्तबा पागल हो चुका है। 

यह उसकी दूरअंदेशी थी... वह रिहर्सल कर रहा था ताकि सचमुच पागल हो जाए तो पागलखाने में आराम से रहे। 

पागल होकर क्या करेगा ?

पागलों को होशमंद बनाने की कोशिश करेगा। 

यह भी जुर्म है ?

मालूम नहीं। यह तो कोई वकील ही बता सकता है कि ताज़ीराते-पाकिस्तान में इसके लिए कोई दफ़ा मौजूद है या नहीं। 
होनी चाहिए। पागलों को होशमंद बनाना दफा 292 की रोशनी में तो बहुत खतरनाक जुर्म मालूम होता है। 

दफा 292 के बारे में तो अब हाई कोर्ट ने ‘ठंडा गोश्त‘ को फैसला करते हुए साफ तौर पर कह दिया है कि कानून को मुसन्निफ़ की नीयत से कोई वास्ता नहीं। वह नेक हो या बद, कानून को तो सिर्फ यह देखना है मैलान (अभिरूचि) क्या है?

इसलिए तो मैं अर्ज कर रहा था कि पागलों को होशमंद बनाने के फेल में नीयत कैसी भी हो, उसके मैलान को ज़ेरे-ग़ौर करना पड़ेगा, और ज़ाहिर है इस फेल (काम) में मैलान किसी सूरत में भी बेज़रर (जिससे कोई हानि न हो) करार नहीं दिया जा सकता। 

ये कानूनी मूशिगाफियां (बाल की खाल निकालना) हैं। इनसे हमें दूर रहना चाहिए। 

आपने बहुत अच्छा किया जो बर्वक्त तबीह (चेतावनी देना) कर दी क्योंकि ऐसी बातें के मुताल्लिक़ सोचना ही अज़खुद एक बड़ा संगीन जुर्म है। 

लेकिन हज़रत, मैं सोचता हूं, अगर मंटो सचमुच पागल हो गया तो उसके बीवी-बच्चों का क्या होगा ?

उसके बीवी-बच्चे जाएं जहन्नम में। कानून को उनसे क्या वास्ता। 

दुरूस्त है लेकिन हुकूमत क्या उनकी मदद नहीं करेगी ?

हां, हुकूमत की बात जुदा है। मेरा ख्याल है कि उसे मदद करनी चाहिए। और कुछ नहीं तो अखबारों में तो इस बात का ऐलान कर देना चाहिए कि वाह इसके मुताल्लिक गौर कर रही है। 

जब तक गौर होगा, तब तक मामला साफ हो जाएगा। 

ज़ाहिर है। अब तक होता तो ऐसा ही रहा है। 

लानत भेजिए मंटो और उसके बीवी-बच्चों पर। आप यह बताइए, हाई कोर्ट के फैसले का उर्दू अदब पर क्या असर होगा ?

उर्दू अदब पर भी लानत भेजिए। 

नहीं साहिब, ऐसा न कहिए... सुना है अदब कौम को बहुत बड़ा सरमाया होता है। 

होगा भाई... हम तो उसे सरमाया मानते हैं को नकदी की सूरत में बैंक में पड़ा हो।

लाख रूपए की बात कही आपने... तो मोमिन, मीर, अहसन, शौक, सादी, हाफिज वगैरह सब दफ़ा 292 साफ कर देगी ?

करना चाहिए वर्ना उसके वुजूद का मतलब ही क्या है ?

ये जितने अदीब और शाइर बने फिरते हैं अब इनको चाहिए कि होश में आएं और कोई शरीफाना पेश इख्तियार करें।
लीडर बन जाएं। 

सिर्फ मुस्लिम लीग के ?

जी हां, मेरा मतलब यही था। किसी और लीग का लीडर बनना फहश है।

बेहद फहश। 

लीडरी के अलावा और भी शरीफाना पेशे मौजूद हैं... डाकखाने के बाहर बैठकर पाकीज़ा इबारत में खतूतनवीसी (खत लिखना) करें। दीवारों पर इशितहार लिखें। बेरोज़गारों के दफ़्तर में क्लर्क हो जाएं, नया-नया मुल्क बना है... हज़ारों आसामियां खाली हैं, कहीं भी समा जाएं....।

जी हां... इतनी खाली ज़मीन पड़ी है।

हुकूमत सोच रही है कि तवाइफों और रंडियों के लिए रावी के पास एक बस्ती बना दे ताकि शहर की गलाज़त दूर हो। क्यों न इन शायरों, अफसानानिगारों और अदीबों (साहित्यकार) को भी उनमं शामिल कर लिया जाए ?

बहुत अच्छा ख्याल है, ये लोग वहां खुश रहेंगे। 

लेकिन अंजाम क्या होगा ?

अंजाम की कौन सोचता है... जो होना होगा, हो जाएगा। 

हां... वहां पड़े झक मारते रहेंगे...लोहे को लोहा काटता है, फहाशी को फहाशी काटती रहेगी। 

बड़ा दिलचस्प सिलसिला रहेगा। 

मंटो को तो खासतौर पर वहां अपनी दिलचस्पी का मनभाता सामान मिल जाएगा। 

लेकिन वह कमबख्त उनका मुजरा सुनने के बजाय उन पर लिखेगा। कई सौगंधियां, कई सुल्तानाएं पेश करेगा। 
और कई खुशिया (मंटो के अफसाने खुशिया का पात्र), कई ढोंडू...

मालूम नहीं, कमबख्त को ऐसे गिरे हुए इंसानों को उठाने मंे क्या मज़ा आता है। सारी दुनिया उन्हें ज़लील और हकीर समझती है मग रवह उनको सीने से लगाता है, उनको प्यार करता है। 

उसकी बहन इस्मत ने उसके मुताल्लिक कुछ ठीक ही कहा था कि मंटो को अजीबो-गरीब तहलका डाल देनेवाली और सोतों को चैंका देनेवाली चीज़ों से बड़ी रगबत है। वह सोचता है, अगर बहुत से लोग सफेद कपड़े पहने बैठे हों, और कोई कीचड़ मलकर वहां चला जाए तो सब हक्का-बक्का रह जाएंगे... सब लोग रो-पीट रहे हों, वहां एक ऊंचा कहकहा लगा दो तो सब दम साधकर टुकर-टुकर मुंह देखने लगेंगे। बस धाक बैठ जाएगी, सिक्का जम जाएगा। 

उसका भाई मुम्ताज़ हुसैन कहता है: वह नेकी की तलाश में निकलता है और उसकी एक किरन ऐसे इंसान के पेट से निकालता है कि जिसके बारे में आप इस किस्म की कोई तवक्क़ो ही नहीं रखते। यह है मंटो का कारनामा। 

यह बड़ी लग्व (बहुत बुरी, वाहियात) हरकत है बल्कि फहश हरकत है कि ऐसे इंसान की पेट से रोशनी की एक किरन निकाली जाए जिसमें सिवाय अंतड़ियों और फुज्ले (मल-मूत्र) के और कुछ न हो। 

और कीड़च मल के सफेदपोश लोगों के दरमियान कूद पड़ना...

यह और भी फहश है।

यह इतनी कीचड़ लाता कहां से है ?

मालूम नहीं। कहीं -न-कहीं से ढूंढ निकालता है।

गंदगी का ग़व्वास (गोताखोर) जो ठहरा। 

आइए हम दुआ मांगें कि खुदा हमें उसके लानती वुजूद से निजात दिलाए... इसमें खुद मंटो की भी निजात है:

‘‘ऐ खुदा, ऐ रब्बुलआलमीन... ऐ रहीम, ऐ करीम ! हम दो गुनहगाार बंदे तेरे हुजूर गिड़ड़िाकर दुआ मांगते हैं कि तू सआदत हसन मंटो को जिसके वालिद का नाम गुलाम हसन मंटो हैं और जो बहुत शरीफ, परहेज़गार और खुदातरस आदमी था, इस दुनिया से उठा ले, जहां वह खुशबूंएं छोड़ देता ळै और बदबुओं की तरफ भागता है। नूर में वह अपनी नहीं खोलता लेकिन अंधेरे में ठोकरें खाता फिरता है। सत्र (शरीर का वह भाग जिसको छिपाना जरूरी है) से उसको कोई दिलचस्पी नहीं, वह सिर्फ इंसानों की नंग देखता है। मिठाइयों से उसे कोई रग़बत नहीं, कड़वाहटों पर अलबत्ता जान देता है। घरेलू औरतों की तरफ वह आंख उठाकर भी नहीं देखता लेकिन बेसवाओं से घुल-मिल कर बातें करता है। साफ और शफ्फाफ पानी छोड़ के बदरौओं (गंदी नाली) में नहाता है। जहां रोना है, वहां हंसता है और जहां हंसना है, वहां रोता है। कोयलों की दल्लाली में जो अपना मुंह काला करते हैं, उनकी कालिख साफ हरके हमें दिखाता है। तुझे भूलकर उस शैतान के पीछे मारा-मारा फिरता है जिसने तेरी उदूल-हुक्मी की थी... ऐ रब्बुलआलमीन, उस शरअंगेज (बुराई फैलाने वाले), नाजिसपसंद (ग़लीज, गंदगीपसंद) और शरीर इंसान को इस दुनिया से उठा ले जिसमें वह बदकिरदारों ओर बदअतवारों (कुरीतियां) के नामा-ए-आमाल (कर्मपत्र) की सियाहियां मिटाने की कोशिश में मसरूफ है... ऐ खुदा, वह बहु शरपसंद है। अदालतों के फैसले सुबूत हैं लेकिन ये अर्जी अदालतें हैं, तू उसे इस दुनिया से उठा और अपनी आसमानी अदालत में उसके खिलाफ मुकदमा चला और उसको करार वाकई सज़ा दे। लेकिन देख, उसे अदाएं बहुत आती हैं, ऐसा न हो तुझे उसकी कोई अदा पसंद आ जाए... तू सबकुछ जानने वाला है। हमारी सिर्फ यह दुआ है कि वह इस दुनिया में न रहे। रहे तो हम - जैसा बनकर रहे, हम जो एक दूसरे के ऐबों पर पर्दा डालते हैं।‘‘ 

‘ई दुआ अज-मनो-अज-जुमला जहां आमीन बाद ! 

(यह प्रार्थना अक्षरशः सत्य एवं फलीभूत हो)

--- सआदत हसन मंटो 
साभार : दस्तावेज़, राजकमल प्रकाशन
*****
डाकिये की ओर से : अबकी कुछ कहने की जरुरत ही क्या है ? 

Friday, January 7, 2011

नियाजी के आंसू


डाकिये की ओर से : इतिहास रोमांचित करता है.  जब बच्चे थे देशभक्ति के अलावा कुछ नहीं सुहाता था. आँखें फाड़-फाड़ कर सुनते थे और सुनना चाहते थे कि उस परिस्थिति में हमारी सेना ने क्या कदम उठाये थे? 1971 में गाजी को कैसे डुबाया गया था ? 


और... फ्रंटलाइन कवरपेज पर का वो चित्र...  सियाचिन की सर्दी में वर्दी का हत्थे चढ़ाये एक सिक्ख...



बंगलादेश के गठन के बुनियाद में हमारी तत्कालीन सैन्य रणनीति के बारे में एक जानकारी..
*****


मैं फिर से उस इमारत में घुसा। आत्मसमर्पण का दस्तावेज पढ़ा जा रहा था। नियाजी के गालों पर आंसू लुढ़क आए थे। उन्होंने कहा, ‘आपसे किसने कहा कि मैं सरेंडर कर रहा हूं? आप यहां सिर्फ सीजफायर और कदम वापसी के संदर्भ में गुफ्तगू के लिए आए हैं। मैंने यही प्रस्ताव किया था।’ वहां पर मौजूद दूसरे सैन्य अधिकारी भी अपनी आपत्तियां जताने लगे। राव फरमान अली ने ‘संयुक्त कमांड’ के आगे समर्पण का विरोध किया।

समय बीत रहा था, इसलिए मैं नियाजी को एक कोने में ले गया। मैंने उनसे कहा कि यदि आपने आत्मसमर्पण नहीं किया, तो मैं आपके व आपके परिवार तथा दूसरे सजातीय अल्पसंख्यकों की हिफाजत की जिम्मेदारी नहीं ले सकूंगा, लेकिन यदि आपने ऐसा किया, तो मैं उन सबों की सुरक्षा सुनिश्चित करूंगा। मैंने उन्हें इस बात पर फिर से सोचने को कहा और अपनी बात एक बार फिर दोहराई कि यदि आपने समर्पण नहीं किया तो मैं कोई जिम्मेदारी नहीं लूंगा। मैंने यह भी जोड़ा कि आपके पास विचार करने के लिए 30 मिनट हैं और यदि आपने मेरी बात नहीं मानी, तो मैं युद्ध शुरू करने और ढाका पर बमबारी का आदेश जारी कर दूंगा। इसके बाद मैं प्रेस से मिलने बाहर आ गया।

मैं बेहद चिंतित था। नियाजी के पास ढाका में 26,400 सैनिक थे, जबकि हमारे पास करीब 3,000 सैनिक थे, वह भी करीब 30 मील की दूरी पर। मैं अत्यंत उलझन में था कि नियाजी के इनकार करने की सूरत में मैं क्या करूंगा। एक-दो घंटे में ही अपने साथियों के साथ अरोड़ा के पहुंचने की उम्मीद थी और सीजफायर का वक्त भी खत्म होने वाला था। मेरे हाथों में कुछ भी नहीं था।

बाद में पाकिस्तानी जांच आयोग की रिपोर्ट में लिखा गया था कि ‘जनरल जैकब बाहर टहल रहे थे और शांतिपूर्वक अपनी पाइप पी रहे थे।’ इसके ठीक उलट मैं उस वक्त बेहद चिंतित और तनाव में था। मैंने वहां तैनात पाकिस्तानी संतरी से जब उसके परिवार के बारे में पूछा, तो वह यह कहते हुए फूट-फूटकर रो पड़ा कि एक हिन्दुस्तानी अफसर होते हुए भी आप यह पूछ रहे हैं, जबकि हमारे अपने किसी अधिकारी ने यह जानने की कोशिश नहीं की।

तीस मिनट के बाद ऑफिस के भीतर पसरी खामोशी से मिलने मैं दाखिल हुआ। आत्मसमर्पण का दस्तावेज मेज पर पड़ा था। मैंने नियाजी से पूछा कि क्या आप इस दस्तावेज को कुबूल करते हैं, उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने तीन बार उनसे यही सवाल पूछा। फिर भी वह कुछ नहीं बोले। तब मैंने वह दस्तावेज अपने हाथ में उठाया और उसे ऊपर उठाते हुए कहा, ‘मैं इसे आपकी रजामंदी के तौर पर ले रहा हूं।’ नियाजी के गालों पर अश्रु बहने लगे थे, और वहां मौजूद लोगों के चेहरे पर सुकून था।

मैं नियाजी को एक तरफ ले गया और बताया कि मैंने रेस कोर्स में लोगों के सामने आपके दस्तखत की व्यवस्था कर रखी है। उन्होंने इसका सख्त विरोध किया। तब मैंने उन्हें कहा कि आपको अपनी तलवार हमें सौंपनी पड़ेगी। नियाजी ने कहा कि मेरे पास कोई तलवार नहीं है, लेकिन मैं अपना रिवॉल्वर सौंप दूंगा। इसके बाद मैंने उनसे कहा कि आपको गार्ड ऑफ ऑनर भी दिलवाना पड़ेगा।

उस वक्त मेरी स्मृतियों में 1945 के जापानी आत्मसमर्पण के बाद का लमहा कौंध गया, जब मैं सुमात्रा द्वीप पर उतरा था, तो उस वक्त जापानियों ने मुझे गार्ड ऑफ ऑनर दिया था। नियाजी ने कहा कि हमारे पास गार्ड ऑफ ऑनर कमांड करने लायक कोई अधिकारी नहीं है। मैंने उनके एडीसी की ओर संकेत करते हुए कहा कि इन्हें कमांड करना चाहिए। मैंने उन्हें सुरक्षा कारणों से अपने हथियार तब तक अपने पास रखने की इजाजत दे दी, जब तक कि हम उन्हें नि:शस्त्र करने की व्यवस्था पूरी नहीं कर लेते।

इसके बाद मैंने उनके ‘चीफ ऑफ स्टाफ’ के साथ आत्मसमर्पण से संबंधित अन्य प्रक्रिया के बारे में बातचीत की। मैं उस समय वायरलेस के जरिये अरोड़ा से संपर्क साधने की कोशिश कर रहा था, क्योंकि उनसे संपर्क नहीं हो सका था। वह जनरल सगत सिंह को साथ लाने के लिए अगरतला चले गए थे। उसके बाद हम दोपहर के खाने के लिए मेस की तरफ चल पड़े। मेस के बाहर ही ‘ऑब्जर्वर’ के गेविन यंग खड़े थे। उन्होंने अनुरोध किया कि क्या मैं आप लोगों के साथ लंच कर सकता हूं। हम डाइनिंग रूम में पहुंचे। यंग ने अपने अखबार ऑब्जर्वर में ‘द सरेंडर लंच’ शीर्षक से दो पन्नों पर इसके बारे में लिखा था।


लगभग 3.50 बजे मैंने नियाजी से कहा कि आप एयरपोर्ट तक मेरा साथ दीजिए। चूंकि नागरा ने मेरे लिए कोई जीप नहीं छोड़ी थी, सो मैं नियाजी की सरकारी कार में उनके साथ बैठ गया। मुक्तिवाहिनी के लड़ाके उस कार के ऊपर कूद पड़े थे। इससे हमें हवाइअड्डे पहुंचने में थोड़ी परेशानी हुई थी। लगभग 4.30 बजे पांच एम-14 और चार एलॉत्ती हेलिकॉप्टरों के बेड़े में अपने परिजनों व साथी अधिकारियों के साथ अरोड़ा हवाई अड्डे पर उतरे।

अरोड़ा के साथ उनकी पत्नी और वायु सेना व नौसेना प्रमुख थे। लेफ्टिनेंट जनरल सगत सिंह और उनके कुछ डिविजनल कमांडर भी आए थे, साथ ही विंग कमांडर खोंडकर भी थे। दुर्भाग्य से उस्मानी नहीं पहुंच सके, क्योंकि जिस हेलिकॉप्टर से वह उड़ान भर रहे थे, उस पर गोला दागा गया था, जिससे वह क्षतिग्रस्त हो गया था।

मैंने तय किया था कि हवाई अड्डे से मैं आखिरी कार में अरोड़ा और नियाजी के साथ निकलूंगा, लेकिन अरोड़ा ने मुझसे कहा कि आप मेरे साथ मेरी पत्नी को आने दें और फिर वह उनकी बगल में बैठ गईं। नियाजी के एडीसी, जिसके पास आत्मसमर्पण के दस्तावेज थे और मैं, दोनों एक ट्रक में हिचकोले खाते हुए रेस कोर्स पहुंचे। चूंकि किसी तैयारी के लिए वक्त बहुत कम था, इसलिए गार्ड ऑफ ऑनर का निरीक्षण करने के बाद अरोड़ा और नियाजी ने मेज पर बैठकर समर्पण के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए।

मैंने दस्तावेज पर निगाह डाली और उसका शीर्षक पढ़कर भौंचक रह गया, जो यों था- समर्पण दस्तावेज- 4.31 मिनट (भारतीय मानक समय) पर हस्ताक्षरित। मैंने अपनी घड़ी की ओर देखा। वह मुझे 4.55 मिनट का वक्त दिखा रही थी। बहरहाल, नियाजी ने अपना एपलेट उतारा और उससे अपना रिवॉल्वर निकालकर अरोड़ा को सौंप दिया। एक बार फिर उनके गालों पर आंसू बह आए थे।

- - - - - लेफ्टिनेंट जनरल जे एफ जैकब


लेखक बांग्लादेश युद्ध के प्रमुख रणनीतिकार थे, वे पंजाब और गोवा के राज्यपाल भी रह चुके हैं।
शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘ओडेसे ऑन वार ऐंड पीस’ का एक अंश

साभार : दैनिक हिंदुस्तान, दिनाक : 7 जनवरी, 2011(संपादकीय पृष्ठ)
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