Saturday, September 29, 2012

नीली झील और बुरी बात (करतार सिंह दुग्गल )

इस शहर में रहने के लिए मुझे फ्लैट मिला था,कोई करे भी क्या देश तेजी से तरक्की कर रहा है,हर शहर में भीड़ बढ़ गयी है,छोटे छोटे कस्बे बड़े बड़े शहर बन चुके है.दस दिन बाद किसी गली से गुजरो तो गली पहचानी नही जाती.दोबारा किसी पिकनिक की जगह पे जाओगे या बाँध बन चुका होता है या बिजलीघर बन चुका होता है.जहाँ नज़र उठाओ नज़र धुंए की चिमनियो से टकरा कर रह जाती है,हर शहर के साथ लगती ज़मीं लोग बेचते जा रहे है।

घर चाहे छोटा था पर एक  अच्छी बात थी गोल कमरे की खिड़की से झील दिखायी देती थी.खिड़की में जा के खड़े हो जाओ तो आँखों में ठण्ड सी पड़ जाती थी,नीली  झील के सीने पे तैरती नावें,नावों में बैठे मछेरों  के गीत,अक्सर झील से मीठी-मीठी हवा आ रही होती..ठंडी और मीठी.झील के गिर्द हरे खेतों की सुगंध से भरी हुई।
इए घर में आये बहुत दिन नहीं हुए थे कि  हमने महसूस किया की बच्चू अक्सर चिड़चिड़ाया रहता था,
कई बार उसे गुस्सा आ जाता तो गुस्से में ऐसी हरकत कर बैठता की हमे भी कई बार शर्मिन्दा  होना पड़ता,उसको  भी बाद में बहुत परेशानी होती.
बच्चू के बिगड़ रहे मिजाज़ से हम दोनों बहुत परेशान थे,सोच-सोच के हम दोनों इस नतीजे पर पहुंचे की एक तो  उसके चिडचिडे  होने का कारन ये घर था-पहली मंजिल का फ्लैट,जिसमे रहते बच्चा दबा-दबा घुटा-घुटा जकड़ा हुआ सा महसूस करता.धरती से स्पर्श टूट गया था,दूसरा कारन उसकी बहन जो हर जगह हाज़िर  होती .एक तो दिलचस्प उम्र ,कही हंस रही होती,कहीं खेल रही होती,कही उसे प्यार किया जा रहा होता,बच्चू को शायद लगता कि  उसकी जायदाद बांटी जा रही है.
कारन कोई भी  हो,बच्चू का बात -बात पे खीझ उठना हमें बिलकुल पसंद नहीं था.हमनें उसे अपने पास बिठा कर कई बार समझाया भी.फैसला ये हुआ कि  जब भी उसका मूड बिगड़ रहा होगा हम उसे "बुरी बात" कह के याद दिला दिया  करेंगे कि उसे गुस्सा आ रहा है फिर  भी अगर उससे अपने गुस्से पे काबू ना हो तो गोल कमरे की खिड़की में खड़े हो के सामने नीली झील को देखा करेगा..झील के झिलमिला रहे पानी को,झील में तैर रही नावों को झील के आगे -पीछे खेतों को...ऐसे करके उसका गुस्सा ठंडा हो जायेगा।

यह तरकीब बहुत कामयाब रही.कई बार हमने देखा बच्चू को हम याद दिलाते "बुरी बात" तो वह संभल जाता.कई बार उसे जब ज्यादा गुस्सा आता तो वह गोल कमरे की खिड़की में खड़ा हो कर सामने झील को देखता छम-छम आंसू बहा रहा होता.कई बार ऊँचा-ऊँचा रो के मन की भडास निकाल लेता।

बच्चू के लिए प्रयोग की तरकीब हम पर खुद बहुत सही रही पति  -पत्नी में जिसे क्रोध आता नीली झील का जादू अवश्य काम आता।
एक दिन हमने देखा लूमड़ी की तरह शिकार ढूंढ़ती बिट्टी शरारत से कमरे में इधर-उधर घूम रही थी.फिर उसकी नज़र बच्चू की सियाही की दवात पर पड़ी.हमारे  देखते-देखते उसने दवात उसकी कापी पर उल्टा दी.बच्चू को ये देख के जैसे आग लग गयी.गुस्से में बिट्टी की तरफ बढ़ा की तिपायी साफ़ करती माँ ने याद दिला दिया "बुरी बात"..उन्ही कदमो से बच्चू गोल कमरे की खिड़की में जा खड़ा हुआ.सामने नीली झील को देखता आंसू गालो पर लुड़कते रहे।

बहुत दिन नही गुजरे थे  इक दिन स्कूल से वापिस आके बच्चू देखता है कि उसकी सबसे प्यारी कहानियों  की किताब से बिट्टी ने  तस्वीरे अलग कर दी थी.बाकी किताब अलग.बच्चू दांत पीस के रह गया.जब -जब किताब देखता उसका गुस्सा भड़क उठता .माँ को बार-बार याद दिलाना  पड़ता "बुरी बात" ,"बुरी बात".उस रात अकेले  गोल कमरे में खड़े हुए उसे साँझ हो गयी.उस रात बच्चू से खाना नहीं खाया गया।

मेरी पत्नी का ख़्याल था कि बिट्टी के लिए अलग और बच्चू के पढ़ने के लिए अलग कमरा होना चाहिये पर इस फ्लैट में ये सब कहाँ संभव था.इस फ्लैट में तो बस एक खिड़की थी.सामने  झील पे खुलती .नीली झील का नजारा सुबह और होता,दोपहर में और शाम ढले और.नयी दुल्हन की तरह रूप बदलती हर रंग में सुंदर लगती।

एक शाम हम चाय पी रहे थे,छुट्टी का दिन था.सो के उठे हम आराम से गप्पे मार रहे थे.चाय भी पी रहे थे.बच्चू बाहर खेलने गया हुआ था.कुछ देर बाद वह अपना बैट ले के आ गया और हमारे पास खड़ा हमारी बाते सुनने लगा.एक मक्खी बार-बार चाय की केतली पे आ बैठती .बच्चू  उसे बैट से उडाता वह फिर बैठ जाती,हम बच्चू  को मना कर रहे थे की ऐसे मत करो मेज़ बर्तनों से भरी है.मक्खी फिर आयी बच्चू ने उसे उड़ाने के लिए बैट घुमाया इस बार चाय की केतली माँ की झोली में गिरी,गर्म चाय,माँ के कपड़ो का सत्यानास हो गया.माँ गुस्से में कडक पड़ी..केतली के टूट जाने से मुझे भी क्रोध आया. बच्चू पे गरज पड़ा.वैसे के वैसे खड़े बच्चू ने पहले अपनी माँ की तरफ देख के कहा "बुरी बात" फिर मेरी तरफ देख के कहा "बुरी बात" 
फिर हम तीनों हंसने लगे.कुछ देर बाद बच्चू ने माँ के जला पैर और इतनी खूबसूरत केतली को टुकड़े-टुकड़े देख बच्चू को जैसे अपने आप पे गुस्सा आ गया और वह कितनी देर गोल कमरे की खिडकी पर खड़ा रहा।

फिर हमने सुना हमारे घर के सामने बच्चो के लिए सिनेमाघर बनने वाला था.नीचे लायेबरैरी और अजायबघर.पहली मंजिल पे सिनेमा,दूसरी मंजिल पर क्लब और छत पर बच्चो  के लिए पूल ..बच्चू सुन के खिल गया.हम भी बहुत खुश हुए.देखते ही देखते नीव भरनी शुरू हो गयी.नीली झील के आगे पीछे की सारी ज़मीं टुकड़े-टुकड़े कर के  बिक गयी.कैलाश कालोनी बन गयी.जहाँ बच्चो के आकर्षण के लिए बहुत कुछ बन गया.क्लब का मेंबर बनने वाले बच्चों में बच्चू सबसे पहला था.
स्कूल से आके सिनेमा या कल्ब..बच्चू का बहुत मन लग गया.घर आ के घंटो कलब की कहानियां कहता रहता.अकेले बैठे किताबें पढता  रहता.बच्चू के ढ़ेरों दोस्त बन गये,कभी ये जा रहा होता कभी वो अ रहे होते।

एक दिन शाम को जब में घर लौटा तो दोनों बच्चे रो रहे हे.बिट्टी ने बच्चू की कोई चीज़ छेड़ी तो बच्चू ने उसे चांटा मार दिया,बिट्टी के रोने से माँ ने बच्चू को मारा.दोनों बच्चे मार से रो रहे थे.माँ बेटे के क्रोध के बारे में सोच कर मुझे भी गुस्सा आने लगा.कितनी देर बाद मुझे भूली हुई खिडकी की याद आयी.मैं भागता हुआ जल्दी-जल्दी गोल कमरे की तरफ गया.नीली झील कहीं भी नहीं थी.ना नीली झील,ना झील में तैरती नावें,ना नावों में बैठे मछेरों के गीत.कुछ भी नहीं..बस नई बसी कालोनी.झील कही नहीं भी थी।

फिर अक्सर घर में शोर शराबा रहता.बिट्टी  रो रही होती,बच्चू चिल्ला रहा होता,माँ ख़फ़ा हो रही होती मुझे गुस्सा आ रहा होता...
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